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Sunday, November 4, 2018

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Thursday, February 25, 2016

विजयनगर साम्राज्य / Vijaynagar Empire

विजयनगर साम्राज्य / Vijaynagar Empire



विजयनगर साम्राज्य (1336-1646) मध्यकालीन दक्षिण भारत का एक साम्राज्य था। इसके राजाओं ने ३१० वर्ष राज किया।

इसका वास्तविक नाम कर्णाटक साम्राज्य था। इसकी स्थापना हरिहर प्रथम और बुक्का राय प्रथम नामक दो भाइयों ने की थी। ऐसा माना जाता है कि यह भाई पासी थे। पुर्तगाली इसे बिसनागा राज्य के नाम से जानते थे।

इस राज्य की १५६५ में भारी पराजय हुई और राजधानी विजयनगर को जला दिया गया। उसके पश्चात क्षीण रूप में यह और ८० वर्ष चला। राजधानी विजयनगर के अवशेष आधुनिक कर्नाटक राज्य में हम्पी शहर के निकट पाये गये हैं और यह एक विश्व विरासत स्थल है। पुरातात्त्विक खोज से इस साम्राज्य की शक्ति तथा धन-सम्पदा का पता चलता है



परिचय
दक्षिण भारत के नरेश इस्लाम के प्रवाह के सम्मुख झुक न सके। मुसलमान उस भूभाग में अधिक काल तक अपनी विजयपताका फहराने में असमर्थ रहे। इस्लाम के प्रभुत्व को मिटाकर विजयनगर के सम्राटों ने पुन: हिंदू धर्म को जाग्रत किया। यही कारण है कि दक्षिणपथ के इतिहास में विजयनगर राज्य को विशेष स्थान दिया गया है।

दक्षिण भारत की कृष्णा नदी की सहायक तुंगभद्रा को इस बात का गर्व है कि विजयनगर उसकी गोद में पला। उसी के किनारे प्रधान नगरी हंपी स्थित रही। विजयनगर के पूर्वगामी होयसल नरेशों का प्रधान स्थान यहीं था। दक्षिण का पठार दुर्गम है इसलिए उत्तर के महान सम्राट् भी दक्षिण में विजय करने का संकल्प अधिकतर पूरा न कर सके।

द्वारसमुद्र के शासक वीर वल्लाल तृतीय ने दिल्ली सुल्तान द्वारा नियुक्त कंपिलि के शासक मलिक मुहम्म्द के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी। ऐसी परिस्थिति में दिल्ली के सुल्तान ने मलिक मुहम्मद की सहायता के लिए दो (हिंदू) कर्मचारियों को नियुक्त किया जिनके नाम हरिहर तथा बुक्क थे। इन्हीं दोनों भाइयों ने स्वतंत्र विजयनगर राज्य की स्थापना की। सन् १३३६ ई. में हरिहर ने वैदिक रीति से राज्याभिषेक संपन्न किया और तुंगभद्रा नदी के किनारे विजयनगर नामक नगर का निर्माण किया।

विजयनगर राज्य में चार विभिन्न वंशों ने शासन किया। प्रत्येक वंश में प्रतापी एवं शक्तिशाली नरेशों की कमी न थी। युद्धप्रिय होने के अतिरिक्त, सभी हिंदू संस्कृति के रक्षक थे। स्वयं कवि तथा विद्वानों के आश्रयदाता थे। हरिहर तथा बुक्क संगम नामक व्यक्ति के पुत्र थे अतएव उन्होंने संगम सम्राट् के नाम से शासन किया। विजयनगर राज्य के संस्थापक हरिहर प्रथम ने थोड़े समय के पश्चात् अपने वरिष्ठ तथा योग्य बंधु को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया। संगम वंश के तीसरे प्रतापी नरेश हरिहर द्वितीय ने विजयनगर राज्य को दक्षिण का एक विस्तृत, शक्तिशाली तथा सुदृढ़ साम्राज्य बना दिया। हरिहर द्वितीय के समय में सायण तथा माधव ने वेद तथा धर्मशास्त्र पर निबंधरचना की। उनके वंशजों में द्वितीय देवराय का नाम उल्लेखनीय है जिसने अपने राज्याभिषेक के पश्चात् संगम राज्य को उन्नति का चरम सीमा पर पहुँचा दिया। मुसलमानी रियासतों से युद्ध करते हुए, देबराय प्रजापालन में संलग्न रहा। राज्य की सुरक्षा के निमित्त तुर्की घुड़सवार नियुक्त कर सेना की वृद्धि की। उसके समय में अनेक नवीन मंदिर तथा भवन बने।

दूसरा राजवंश सालुव नाम से प्रसिद्ध था। इस वंश के संस्थापक सालुब नरसिंह ने १४८५ से १४९० ई. तक शासन किया। उसने शक्ति क्षीण हो जाने पर अपने मंत्री नरस नायक को विजयनगर का संरक्षक बनाया। वही तुलुव वंश का प्रथम शासक माना गया है। उसने १४९० से १५०३ ई. तक शासन किया और दक्षिण में कावेरी के सुदूर भाग पर भी विजयदुंदुभी बजाई। तुलुब वंशज कृष्णदेव राय का नाम गर्व से लिया जाता है। उसने १५०९ से १५३९ ई. तक शासन किया। वह महान प्रतापी, शक्तिशाली, शांतिस्थापक, सर्वप्रिय, सहिष्णु और व्यवहारकुशल शासक था। उसने नायक लोगों को दबाया, उड़ीसा पर आक्रमण किया और दक्षिण के भूभाग पर अपना अधिकार स्थापित किया। सोलहवीं सदी में यूरोप से पुर्तगाली भी पश्चिमी किनारे पर आकर डेरा डाल चुके थे। उन्होंने कृष्णदेव राय से व्यापारिक संधि की जिससे विजयनगर राज्य की श्रीवृद्धि हुई। तुलुव वंश का अंतिम राजा सदाशिव परंपरा को कायम न रख सका। सिंहासन पर रहते हुए भी उसका सारा कार्य रामराय द्वारा संपादित होता था। सदाशिव के बाद रामराय ही विजयनगर राज्य का स्वामी हुआ और इसे चौथे वंश अरवीदु का प्रथम सम्राट् मानते हैं। रामराय का जीवन कठिनाइयों से भरा पड़ा था। शताब्दियों से दक्षिण भारत के हिंदू नरेश इस्लाम का विरोध करते रहे, अतएव बहमनी सुल्तानों से शत्रुता बढ़ती ही गई। मुसलमानी सेना के पास अच्छी तोपें तथा हथियार थे, इसलिए विजयनगर राज्य के सैनिक इस्लामी बढ़ाव के सामने झुक गए। विजयनगर शासकों द्वारा नियुक्त मुसलमान सेनापतियों ने राजा को घेरवा दिया अतएव सन् १५६५ ई. में तलिकोट के युद्ध में रामराय मारा गया। मुसलमानी सेना ने विजयनगर को नष्ट कर दिया जिससे दक्षिण भारत में भारतीय संस्कृति की क्षति हो गई। अरवीदु के निर्बल शासकों में भी वेकंटपतिदेव का नाम धिशेषतया उल्लेखनीय है। उसने नायकों को दबाने का प्रयास किया था। बहमनी तथा मुगल सम्राट् में पारस्परिक युद्ध होने के कारण वह मुसलमानी आक्रमण से मुक्त हो गया था। इसके शासनकाल की मुख्य घटनाओं में पुर्तगालियों से हुई व्यापारिक संधि थी। शासक की सहिष्णुता के कारण विदेशियों का स्वागत किया गया और ईसाई पादरी कुछ सीमा तक धर्म का प्रचार भी करने लगे। वेंकट के उत्तराधिकारी निर्बल थे। शासक के रूप में वे विफल रहे और नायकों का प्रभुत्व बढ़ जाने से विजयनगर राज्य का अस्तित्व मिट गया।

हिंदू संस्कृति के इतिहास में विजयनगर राज्य का महत्वपूर्ण स्थान रहा। विजयनगर की सेना में मुसलमान सैनिक तथा सेनापति कार्य करते रहे, परंतु इससे विजयनगर के मूल उद्देश्य में र्को परिवर्तन नहीं हुआ। विजयनगर राज्य में सायण द्वारा वैदिक साहित्य की टीका तथा विशाल मंदिरों का निर्माण दो ऐसे ऐतिहासिक स्मारक हैं जो आज भी उसका नाम अमर बनाए हैं




स्थापत्य कला
इस साम्राज्य के विरासत के तौर पर हमें संपूर्ण दक्षिण भारत में स्मारक मिलते हैं जिनमें सबसे प्रसिद्ध हम्पी के हैं। दक्षिण भारत में प्रचलित मंदिर निर्माण की अनेक शैलियाँ इस साम्राज्य ने संकलित कीं और विजयनगरीय स्थापत्य कला प्रदान की। दक्षिण भारत के विभिन्न सम्प्रदाय तथा भाषाओं के घुलने-मिलने के कारण इस नई प्रकार की मंदिर निर्माण की वास्तुकला को प्रेरणा मिली। स्थानीय कणाश्म पत्थर का प्रयोग करके पहले दक्कन तथा उसके पश्चात् द्रविड़ स्थापत्य शैली में मंदिरों का निर्माण हुआ। धर्मनिर्पेक्ष शाही स्मारकों में उत्तरी दक्कन सल्तनत की स्थापत्य कला की झलक देखने को मिलती है।

उत्पत्ति
इस साम्राज्य की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न दंतकथाएँ भी प्रचलित हैं। इनमें से सबसे अधिक विश्वसनीय यही है कि संगम के पुत्र हरिहर तथा बुक्का ने हम्पी हस्तिनावती राज्य की नींव डाली। और विजयनगर को राजधानी बनाकर अपने राज्य का नाम अपने गुरु के नाम पर विजयनगर रखा[1]।

दक्षिण भारत में मुसलमानों का प्रवेश अलाउद्दीन खिल्जी के समय हुआ था। लेकिन अलाउद्दीन उन राज्यों का हराकर उनसे वार्षिक कर लेने तक ही सीमित रहा। मुहम्मद बिन तुगलक ने दक्षिण में साम्राज्य विस्तार के उद्येश्य से कम्पिली पर आक्रमण कर दिया और कम्पिली के दो राज्य मंत्रियों हरिहर तथा बुक्का को बंदी बनाकर दिल्ली ले आया। इन दोनों भाइयों द्वारा इस्लाम धर्म स्वीकार करने के बाद इन्हें दक्षिण विजय के लिए भेजा गया। माना जाता है कि अपने इस उद्येश्य में असफलता के कारण वे दक्षिण में ही रह गए और विद्यारण्य नामक सन्त के प्रभाव में आकर हिन्दू धर्म को पुनः अपना लिया। इस तरह मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में ही भारत के दक्षिण पश्चिम तट पर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की गई।

साम्राज्य विस्तार
विजयनगर की स्थापना के साथ ही हरिहर तथा बुक्का के सामने कई कठिनाईयां थीं। वारंगल का शासक कापाया नायक तथा उसका मित्र प्रोलय वेम और वीर बल्लाल तृतीय उसके विरोधी थे। देवगिरि का सूबेदार कुतलुग खाँ भी विजयनगर के स्वतंत्र अस्तित्व को नष्ट करना चाहता था। हरिहर ने सर्वप्रथम बादामी, उदयगिरि तथा गुटी के दुर्गों को सुदृढ़ किया। उसने कृषि की उन्नति पर भी ध्यान दिया जिससे साम्राज्य में समृद्धि आयी। होयसल साम्राट वीर बल्लाल मदुरै के विजय अभियान में लगा हुआ था। इस अवसर का लाभ उठाकर हरिहर ने होयसल साम्राज्य के पूर्वी बाग पर अधिकार कर लिया। बाद में वीर बल्लाल तृतीय मदुरा के सुल्तान द्वारा 1342 में मार डाला गया। बल्लाल के पुत्र तथा उत्तराधिकारी अयोग्य थे। इस मौके को भुनाते हुए हरिहर ने होयसल साम्राज्य पर अधिकार कर लिया। आगे चलकर हरिहर ने कदम्ब के शासक तथा मदुरा के सुल्तान को पराजित करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली।

हरिहर के बाद बुक्का सम्राट बना हंलाँकि उसने ऐसी कोई उपाधि धारण नहीं की। उसने तमिलनाडु का राज्य विजयनगर साम्राज्य में मिला लिया। कृष्णा नदी को विजयनगर तथा बहमनी की सीमा मान ली गई। बुक्का के बाद उसका पुत्र हरिहर द्वितीय सत्तासीन हुआ। हरिहर द्वितीय एक महान योद्धा था। उसने अपने भाई के सहयोग से कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, काञ्ची, चिंगलपुट आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

शासकों की सूची[संपादित करें]
संगम वंश[संपादित करें]
हरिहर राय १ 1336-1356
बुक्क राय १ 1356-1377
हरिहर राय २ 1377-1404
विरुपक्ष राय 1404-1405
बुक्क राय २ 1405-1406
देव राय १ 1406-1422
रामचन्द्र राय 1422
वीर विजय बुक्क राय 1422-1424
देव राय २ 1424-1446
मल्लिकार्जुन राय 1446-1465
विरुपक्ष राय २ 1465-1485
प्रौढ राय 1485
सलुव वंश[संपादित करें]
सलुव नरसिंह देव राय 1485-1491
थिम्म भूपाल 1491
नरसिंह राय २ 1491-1505
तुलुव वंश[संपादित करें]
तुलुव नरस नायक 1491-1503
वीरनरसिंह राय 1503-1509
कृष्ण देव राय 1509-1529
अच्युत देव राय 1529-1542
सदाशिव राय 1542-1570
अरविदु वंश[संपादित करें]
अलिय राम राय 1542-1565
तिरुमल देव राय 1565-1572
श्रीरंग १ 1572-1586
वेंकट २ 1586-1614
श्रीरंग २ 1614-1614
रामदेव अरविदु 1617-1632
वेंकट ३ 1632-1642
श्रीरंग ३ 1642-1646




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राष्ट्रकूट साम्राज्य / Rashtrakoot Vansha

राष्ट्रकूट साम्राज्य / Rashtrakoot Vansha

राष्ट्रकूट साम्राज्य
दन्तिदुर्ग (735-756) ने चालुक्य साम्राज्य को पराजित कर राष्ट्रकूट साम्राज्य की नींव डाली।

दन्तिदुर्ग (735 - 756)
कृष्ण १ (756 - 774)
गोविन्द २ (774 - 780)
ध्रुव धारवर्ष (780 - 793)
गोविन्द ३ (793 - 814)
अमोघवर्ष १ (814 - 878)
कृष्ण २ (878 - 914)
इन्द्र ३ (914 -929)
अमोघवर्ष २ (929 - 930)
गोविन्द ४ (930 – 936)
अमोघवर्ष ३ (936 – 939)
कृष्ण ३ (939 – 967)
खोट्टिग अमोघवर्ष(967 – 972)
कर्क २ (972 – 973)
इन्द्र ४ (973 – 982)
तैलप २ (प्रतीच्य चालुक्य) (973-1200) ने इस साम्राज्य को पराजित कर इस वंश को अन्त कर दिया।


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चालुक्य राजवंश / Chalukya Vansha

चालुक्य राजवंश / Chalukya Vansha


चालुक्य प्राचीन भारत का एक प्रसिद्ध राजवंश था। इनकी राजधानी बादामि (वातापि) थी। अपने महत्तम विस्तार के समय (सातवीं सदी) यह वर्तमान समय के संपूर्ण कर्नाटक, पश्चिमी महाराष्ट्र, दक्षिणी मध्य प्रदेश, तटीय दक्षिणी गुजरात तथा पश्चिमी आंध्र प्रदेश में फैला हुआ था।



परिचय :->
चालुक्य राजवंश कई शाखाओं में विभक्त था। यह मान्यता है कि वे (चालुक्य) सोलंकी वंश के ही समरूप थे, क्योंकि वे भी इस रूढ़ि में विश्वास करते थे कि परिवार का अधिष्ठाता ब्रह्मा की हथेली से उत्पन्न हुआ था। यह भी किबदंती है कि चालुक्यों का मूल वासस्थान अयोध्या था, जहाँ से चलकर उस परिवार का राजकुमार विजयादित्य दक्षिण पहुँचा और वहाँ अपना राज्य स्थापित करने के प्रयत्न में पल्लवों से युद्ध करता हुआ मारा गया। उसके पुत्र विष्णुवर्धन् ने कदंबो और गंगों को परास्त किया और वहाँ अपने राज्य की स्थापना की। वंश की राजधानी बीजापुर जिले में बसाई थी। विष्णुवर्धन् का एक उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मन् प्रथम था, जो छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था। उसने कदंबों, गंगां और मौर्यों को पराजित करके अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित प्रदेश में कुछ और भाग मिला लिए। पुलकेशिन् द्वितीय, कुब्ज विष्णुवर्धन और जयसिंह उसके तीन पुत्र थे और छठी शताब्दी के अंत में उसका उत्तराधिकार उसके छोटे भाई मंगलेश को प्राप्त हुआ। मंगलेश ने 602 ई. के पूर्व मलवा के कलचुरीय बुद्धराज को परास्त किया और दक्षिण में कलचुरि राज्य के विस्तार को रोका। उसने अपने पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी बनाने का प्रयत्न किया, किंतु उसके भतीजे पुलकेशिन् द्वितीय ने इसका विरोध किया। फलस्वरूप गृहयुद्ध में मंगलेश के जीवन का अंत हुआ। पुलकेशिन् द्वितीय ने जो 609 में सिंहासन पर बैठा, एक बड़ा युद्ध अभियान जारी किया और मैसूर के कंदब, कोंकण के मौर्य, कन्नौज के हर्षवर्धन और कांची के पल्लवों को परास्त किया तथा लाट, मालवा, गुर्जर और कलिंग पर विजय प्राप्त की। उसके छोटे भाई विष्णुवर्धन् ने अपने लिये आंध्र प्रदेश जीता तो बादामी राज्य में मिला लिया गया। उसने सन् 615- 616 में इस राजकुमार को आंध्र का मुख्य शासक नियुक्त किया और तब उसका शासन राजकुमार और उसके उत्तराधिकारियों के हाथ में रहा, जो पूर्वी चालुक्यों के रूप में प्रसिद्ध थे। संभवत: पुलकेशिन् द्वितीय ने पल्लव नरसिंह वर्मन् से सन् 642 में वुद्ध करते हुए प्राण दिए। उसके राज्यकाल में सन् 641 में एक चीनी यात्री युवानच्वाङ् ने उसके राज्य का भ्रमण किया, जिसके संस्मरणों से उस काल में दक्षिण की आंतरिक स्थिति की झलक प्राप्त हो सकती है। पुलकेशिन् द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् 13 वर्ष तक दक्षिण का प्रांत पल्लवों के अधिकार में रहा। 655 ई. में उसके बेटे विक्रमादित्य प्रथम ने पल्लवों के अधिकार से अपना राज्य पुन: प्राप्त कर लिया। उसने अपनी सेनाएँ लेकर पल्लवों पर आक्रमण कर दिया और प्रदेश के एक भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया, यद्यपि वह प्रभुत्व बहुत अल्प समय तक ही रहा। उसके प्रपौत्र विक्रमादित्य द्वितीय ने पल्लवों से पुन: बैर ठान लिया और उसकी राजधानी कांची को लूट लिया। विक्रमादित्य द्वितीय के राज्यकालांतर्गत (733-745 ई.) चालुक्य राज्य के उत्तरी भाग पर सिंध के अरबों ने आधिपत्य जमा लिया, किंतु अवनिजनाश्रय पुलकेशी नाम के उसके सामंत ने, जो चालुक्य वंश की पार्श्ववर्ती शाखा का सदस्य था तथा जिसक मुख्य स्थान नौसारी में था, आधिपत्यकारियों को खदेड़कर बाहर कर दिया। उसका पुत्र और उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मन् द्वितीय आठवीं शताब्दी के मध्य राष्ट्रकूट दानीदुर्ग द्वारा पदच्युत किया गया


जैसा इससे पूर्व कहा जा चुका है, कुब्ज विष्णुवर्धन्, पुलकेशिन् द्वितीय का छोटा भाई, जो चालुक्य साम्राज्य के पूर्वी भाग का अधिष्ठाता था, 1915-16 ई. में आंध्र की राजधानी बेंगी के सिंहासन पर बैठा। पूर्वी चालुक्यवंशियों को राष्ट्रकूटों से दीर्घकालीन युद्ध करना पड़ा। अंत में राष्ट्रकूटों ने चालुक्यों की बादामी शासक शाखा को अपदस्थ कर दिया और दक्षिण पर अधिकार कर लिया। राष्ट्रकूट राजकुमार गोविंद द्वितीय ने आंध्र पर अधिकार कर लिया और तत्कालीन शासक कुब्ज विष्णुवर्धन् के दूरस्थ उत्तराधिकारी, विष्णुवर्धन चतुर्थ को आत्मसमर्पण के लिये बाध्य किया। विष्णुवर्धन् चतुर्थ अपने मुखिया गोविंद द्वितीय के पक्ष में राष्ट्रकूट ध्रुव तृतीय के विरुद्ध बंधुघातक युद्ध लड़ा और उसके साथ पराजय का साझीदार बना। उसने ध्रुव तृतीय और उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी गोविंद तृतीय के प्रभत्व को मान्यता दे दी। तदनंतर पुत्र विजयादित्य द्वितीय कई वर्षों तक स्वतंत्रता के लिये गोविंद तृतीय से लड़ा, किंतु असफल रहा। राष्ट्रकूट सम्राट् ने उसे अपदस्थ कर दिया और आंध्र के सिंहासन के लिये भीम सलुक्की को मनोनीत किया। गोविंद तृतीय की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी अमोघवर्ष प्रथम के राज्यकाल में विजयादित्य ने भीम सलुक्की को परास्त कर दिया, आंध्र पर पुन: अधिकार कर लिया ओर दक्षिण को जीतता हुआ, विजयकाल में कैंबे (खंभात) तक पहुँच गया जो ध्वस्त कर दिया गया था। तत्पश्चात् उसके प्रतिहार राज्य पर आक्रमण किया किंतु प्रतिहार वाग्भट्ट द्वितीय द्वारा पराजित हुआ। घटनावशात् शत्रुओं में तंग आकर उसे अपने देश की शरण लेनी पड़ी। विजयादित्य द्वितीय के पौत्र विजयादित्य तृतीय (844-888ई.) ने उत्तरी अर्काट के पल्लवों को पराजित किया, तंजोर के कोलाओं को उनके देश के पंड्याओं पर पुनर्विजय में सहायता दी, राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय और उसके सबंधी दहाल के कलचुरी संकरगण और कालिंग के गंगों को परास्त किया और किरणपुआ तथा चक्रकूट नगरों को जलवा दिया। 10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गुहयुद्ध हुआ और बदप ने, जो चालुक्य साम्रज्य का पार्श्ववर्ती भाग था, राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय को सहायता देकर तत्कलीन चालुक्य शासक दानार्णव को परास्त कर दिया। फिर वेंगो के सिंहासन पर अवैध अधिकार कर लिया, जहाँ पर उसने और उसे उत्तराधिकारियों ने 999 ई. तक राज्य किया। अंत में दानार्णव के पुत्र शक्तिवर्मन् ने सभी शत्रुओं को परास्त करने और अपने देश में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। शक्तिवर्मन् का उत्तराधिकार उसके छोटे भाई विमलादित्य ने सँभाला। उसके पश्चात् उसका पुत्र राजराज (1018-60) उत्तराधिकारी हुआ। राजराज ने तंजोर के राजेंद्रचोल प्रथम की कन्या से विवाह किया और उससे उसको कुलोत्तुंग नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में चोल राजधानी में अपनी नानी तथा राजेंद्रचोल की रानी के पास रहा। सन् 1060 में राजराज अपने सौतेले भाई विक्रमादित्य सप्तम द्वारा अदस्थ किया गया जो वेंगी के सिंहासन पर 1076 तक रहा। सन् 1070 में राजराज के पुत्र कुलोत्तुंग ने चोल देश पर सार्वभौमिक शासन किया और सन् 1076 में अपने चाचा विजादित्य सप्तम को पराजित कर आंध्र को अपने राज्य में मिला लिया। कुलोत्तुंग और उसके उत्तराधिकारी, जो "चोल" कहलाना पसंद करते थे, सन् 1271 तक चोल देश पर शासन करते रहे।

ऊपर इसका उल्लेख किया जा चुका है कि बादामी का चालुक्य कीर्तिवर्मन् द्वितीय 8वीं शती के मध्यभाग में राष्ट्रकूटों द्वारा पदच्युत कर दिया गया, जिन्होंने बाद में दक्षिण में दो सौ वर्षों से अधिक काल तक राज्य किया। इस काल में कीर्तिवर्मन् द्वितीय का भाई भीम और उसके उत्तराधिकारी राष्ट्रकूटों के सामंतों की हैसियत से बीजापुर जिले में राज्य करते रहे। इन सांमतों में अंतिम तैल द्वितीय ने दक्षिण में राष्ट्रकूटों के शासन को समाप्त कर दिया और 973 ई. में देश में सार्वभौम सत्ता स्थापित कर ली। वह बड़ी सफलता के साथ चोलों और गंगों से लड़ा और मालवा के राजा मुंज को बंदी बना लिया, जिसे अंत में उसने मरवा दिया। तैल की प्रारंभिक राजधानी मान्यखेट थी। सन् 993 के कुछ दिनों पश्चात् राजधानी का स्थानांतरण कल्याणी में हो गया जो अब बिहार में है। तैल का पौत्र जयसिंह (सन् 1015-1042) परमार भोज और राजेंद्र चोल से सफलतापूर्वक लड़ा। जयसिंह का बेटा सोमेश्वर (1042-1068) भी चोलों से बड़ी सफलतापूर्वक लड़ा और लाल, मालवा तथा गुर्जर को रौंद डाला। उसका उत्तराधिकार उसके पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने 1069 में सँभाला जिसे उसके छोटे भाई विक्रमादित्य षष्ठ ने 1076 ई. में अपदस्थ कर दिया। विक्रमादित्य कुलोत्तुंग प्रथम से आंध्र देश पर अधिकार करने के निमित्त लड़ा। युद्ध के विभिन्न परिणाम हुए और कुलोत्तंग प्रथम की मृत्यु के पश्चात् (1018 ई.) कुछ काल तक के लिये विक्रमादित्य ने उस प्रदेश कर अपना प्रभुत्व स्थापित रखा। उसने द्वारसमुद्र के "होयसलों" और देवगिरि के यादवों के विद्रोहों का दमन किया और लाल तथा गुर्जर को लूट लिया। उसके दरबार की शोभा कश्मीरी कवि "विल्हण" से थी, जिसने विक्रमांकदेवचरित लिखा है। विक्रमादित्य षष्ठ के पौत्र तैल तृतीय के शासनकाल में सन् 1156 में कलचुरी बिज्जल ने दक्षिण पर सार्वभौम अधिकार कर लिया और चालुक्य सम्राट् की मृत्यु के पश्चात् सन् 1163 में अपने को सम्राट् घोषित कर दिया। तैल तृतीय के पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ ने 1181 में कलचुरी से पुन: राजसिंहासन छीन लिया, किंतु 1184 के लगभग फिर यादव भिल्लम को समर्पण करना पड़ा। उसके उत्तराधिकारियों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं हैं। चालुक्यवंश की तीन प्रमुख शाखाओं के साथ, जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है, कुछ दूसरी शाखाएँ भी थीं जिन्होंने दक्षिण आंध्र और गुजरात आदि के कुछ भागों में प्रारंभिक काल में शासन किया।


संस्कृति
बादामी के चालुक्य

उत्तरी कर्नाटक के पत्तडकल में प्राचीन कन्नड़ अभिलेख
चालुक्य नरेशों की पूर्ण उपाधि सत्याश्रय श्री पृथिवीवल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर भट्टारक थी। इसमें से परमेश्वर का सर्वप्रथम उपयोग हर्षवर्धन पर पुलकेशिन् द्वितीय की विजय के बाद हुआ और महाराजाधिराज तथा भट्टारक सर्वप्रथम विक्रमादित्य प्रथम के समय प्रयुक्त हुए। राजवंश के योग्य व्यक्तियों को राज्य में अधिकार के पदों पर नियुक्त किया जाता था। राज्य में रानियों का महतव भी नगण्य नहीं होता था। विजित प्रदेश के शासकों को विजेता की अधीनता स्वीकार कर लेने पर शासन पर अधिकार फिर से प्राप्त हो जाता था। अभिलेखों में सामंत और महत्तर के अतिरिक्त विषयपति, देशधिपति, महासांधिविग्रहिक, गामुंड, ग्रामभोगिक और करण के उल्लेख मिलते हैं। राज्य राष्ट्र, विषय, नाडु और ग्रामों में विभक्त था। राज्य के करों में निधि, उपनिधि, क्लृप्त, उद्रंग और उपरिकर के अतिरिक्त मारुंच, आदित्युंच, उचमन्न और मरुपन्न आदि स्थानीय करों के उल्लेख हैं। मकानों और उत्सवों पर भी कर था। व्यापारी संघ स्वयं अपने ऊपर भी कर लगाया करते थे। चालुक्यों को सेना संगठित और शाक्तिशाली थी। इसका उल्लेख युवानच्वाङ् ने किया है और इसका समर्थन चालुक्यों की विजयों से, विशेष रूप से हर्ष पर सिद्ध होता है। उसका कहना है कि पराजित सेनापति को कोई दंड नहीं दिया जाता, केवल उसे स्त्रियों के वस्त्र पहनने पड़ते हैं। चालुक्यों की नौसेना की शक्ति भी नगण्य नहीं थी।

युवान च्वांङ् ने लिखा है मिट्टी अच्छी और उपजाऊ है, बराबर जोती जाती है और इससे बहुत अधिक उपज होती है। उसने महाराष्ट्र के निवासियों को गर्वीला और युद्धप्रिय बतलाया है एवं कहा है कि वे उपकार के प्रति कृतज्ञ और अपकार के प्रति प्रतिशोधक होते है, विपन्न और शरणगत के लिये वे आत्मबलिदान तक करने को तत्पर रहते हैं और अपमान करनेवाले की हत्या की उन्हें पिपासा होती है। स्त्रियों में उच्चकुलों में शिक्षा के प्रसार के कई प्रमाण हैं। मंदिर सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के विशिष्ट केंद्र थे। आर्थिक जीवन में श्रेणियों का महत्व था। कांस्यकार और तेलियों की श्रेणियों के उल्लेख अभिलेखों में मिलते हैं। लक्ष्मेश्वर के अभिलेख में युवराज विक्रमादित्य द्वारा पोरिगिरे स्थान के महाजनों, नगर और 18 प्रकृतियों को दी गई आचारव्यवस्था का विवरण है। राज्य की ओर से तौल और मान में आदर्श रूप प्रस्तुत किया गया था।

ब्राह्मण धर्म उन्नति पर था। चालुक्य नरेश विष्णु अथवा शिव के उपासक थे। उन्होंने इन देवताओं की पूजा के लिये पट्टकल, बादामी आदि स्थानों पर भव्य मंदिर निर्मित किए। ग्रहण के अवसर पर वे दान देते थे और स्मृतियों के आदर्श पर व्रत और दान करते थे। वे वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान करते थे और विद्वान् ब्राह्मणों का संत्कार करते थे। किंतु धार्मिक विषयों में वे सहिष्णु थे तथा जैनियों का आदर करते थे। और उन्हें भी दान देते थे। चालुक्य राज्य में जैन धर्म उन्नत दशा में था। राज्य में कई उल्लेखनीय जैन मंदिर भी बनवाए गए। बौद्ध धर्म की स्थिति के लिये हमारे पास कोई समकालीन पुरातत्व का प्रमाण नहीं है। युवान च्वाङ् का कथन है कि महाराष्ट्र में सौ से ऊपर बौद्ध विहार और पाँच हजार से ऊपर बौद्ध भिक्षु थे।

युवानच्वांड के अनुसार लोगों को ज्ञानार्जन की रुचि थी। राजवंश के व्यक्ति स्वयं विद्याओं और शास्त्रों का अध्ययन करते थे और विद्वानों को दान के द्वारा प्रोत्साहन देते थे। वातापी शिक्षा और ज्ञान के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध थी। संस्कृत साहित्य के विभिन्न अंगों का अध्ययन होता था। अभिलेखों की भाषाशैली पर प्रसिद्ध काव्यग्रंथों का प्रभाव स्पष्ट है। एहोळे प्रशस्ति की रचना जैन कवि रविकीर्ति ने की थी। जैनेंद्र व्याकरण के रचयिता पूज्यवाद इसी काल के थे। विजयांका अथवा विज्जिका, जिसकी गणना राजशेखर ने वैदर्भी शैली का प्रयाग करने में केवल कालिदास के बाद की है, संभवत: चंद्रादित्य की रानी विजयभट्टारिका ही थी। सोमदेवसूरि ने यशस्तिलकचंपू और नीतिवाक्या मृत की रचना वेमुलवाड के चालुक्यों के संरक्षण में की थी। कन्नड साहित्य के इतिहास में भी इस काल का योगदान महत्वपूर्ण है। श्री वर्धदेव ने तत्वार्थमहाशास्त्र पर चूडामणि नाम की टीका लिखी। श्यामकुंदाचार्य प्राकृत, संस्कृत और कर्णाट भाषाओं के लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं। कन्नड भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि और आदिपुराण तथा विक्रमार्जुनविजय के रचयिता पंप वेमुलवाड के चालुक्य नरेश अरिकेसरि द्वितीय के दरबार में थे।

ऐहोले, मेगृति और बादामी के मंदिरों से दक्षिण के मंदिरों का इतिहास प्रारंभ होता है। पट्टकल के मंदिरों में इनके विकास का दूसरा चरण परिलक्षित होता है इन मंदिरों से मूर्तियों की संख्या में वृद्धि के साथ ही इनकी शैली में भी विकास मिलता है। ठोस चट्टानों को काटकर मंदिरों का निर्माण करने की कला में अद्भुत कुशलता दिखलाई पड़ती है। लोकेश्वर मंदिर के निर्माता श्रीगुंडन् अनिवारिताचारि ने अनेक नगरों की निर्माणयोजना की थी और अनेक वास्तु, यान, आसन, शयन, मणिमुकुट और रत्नचूड़ामणि आदि बनाए थे। वह त्रिभुवनाचारि और दक्षिण देश के सूत्रधार के रूप में प्रसिद्ध थे। विद्वान् अजंता के भित्तिचित्रों में से कुछ को इसी काल की कृति मानते हैं। पट्टदकल के अभिलेख में भी शिल्पकारों और मूर्तिकारों के एक वंश की तीन पीढ़ियों का उल्लेख है। एक अभिलेख में भरत की परंपरा पर आधारित नृत्य के एक नए ग्रंथ की लोकप्रियता का उल्लेख है जिसने अन्य विरोधी पद्धतियों पर विजय प्राप्त की थी।


कल्याणी के चालुक्य[संपादित करें]

लकुंडी (गडग जिला) में स्थित जैन मंदिर

इनके राजचिह्रों में मयूरध्वज भी था। इनका पूर्ण विरुद था- समस्त भुवनाश्रय श्रीपृथिवीवल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परमभट्टारक सत्याश्रयकुलतिलक चालुक्याभरण श्रीमत् -जिसके अंत में मल्ल अंतवाली राजा की विशिष्ट उपाधि होती थी। राजवंश के व्यक्तियों को विभिन्न प्रदेशों के करों का भाग भुक्ति के रूप में मिलता था। युवराज को राज्य के दो प्रमुख प्रांतों का शासन दिया जाता था। सामंतों के अभिलेखों में उनके अधिपति के वंशावली के बाद "तत्पाद पद्मोपजीवि" के साथ उनका स्वयं का उल्लेख होता था। उनके अभिलेख में राज्य की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि और आचंद्रार्क-स्थायित्व सूचक शब्दों का अभाव होता था। स्त्रियों को भी प्रांत और दूसरे प्रादेशिक विभाजनों का शासन दे दिया जाता था। चालुक्यों के अभिलेखों में कई राजगुरुओं के उल्लेख हैं। राज्य के वैभव के प्रदर्शन की भावना बढ़ रही थी। इसी के साथ शासनव्यवस्था की जटिलता बढ़ रही थी। उदाहरणार्थ, सांधिविग्रहिक के साथ ही हमें कन्नडसांधिविग्रहिक, लाटसांधिविग्रहिक और हेरिसांधिविग्रहिक के उल्लेख मिलते हैं। राजभवन में सेवकों और अधिकारियों में कई रंग दिखलाई पड़ते हैं। चालुक्य अभिलेखों में अनेक योग्य मंत्रियों तथा अधिकारियों के नाम मिलते हैं जिन्होंने चालुक्यों के गौरव को बढ़ाने में विशेष योग दिया था। ऐसे अधिकारी प्राय: एक से अधिक पदों पर रहते थे। विशिष्ट गौरवप्राप्त अधिकारियों और विशिष्ट सैनिकों का एक वर्ग था जे सहवासि कहलाता था। वह सदैव सम्राट् के साथ रहता था और उसकी सेवा में प्राण तक त्यागने के लिये प्रस्तुत रहता था। पद प्राय: वंशगत होते थे और वेतन के स्थान पर भुक्ति अथवा कर का भाग देने का प्रचलन था। विशिष्ट सेवा के लिये विशेष उपाधियों और विशेष चिह्रों के उपयोग का अधिकार दिया जाता था। सैनिक अधिकारियों में सेनाधिपति, महादंडनायक, दंडनायक और कतितुरगसाहिनि के उल्लेख मिलते हैं। सेना में सभी जाति और वर्ग के लोग संमिलित होते थे। राज्य राष्ट्र, विषय, नाड्ड, कंपण और ठाण में विभक्त था। किंतु इन प्रादेशिक विभाजनों के साथ अभिलेखों में जो संख्याएँ प्रयुक्त हुई हैं उनका निश्चित महत्व अभी तक नहीं स्पष्ट हो पाया है। शासन में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का विशेष स्थान था। इनमें से कुछ का स्वरूप सामाजिक और धार्मिक भी था। नगरों का प्रबंध करनेवाली सभाएँ महाजन के नाम से प्रसिद्ध थीं। गांवों की संस्थाएँ, जो मुख्यत: चोल संस्थाओं जैसी थीं, पहले की तुलना में अधिक सक्रिय थीं। ये सामूहिक संस्थाएँ परस्पर सहयोग के साथ काम करती थीं और सामाजिक जीवन में उपयोगी अनेक कार्यों का प्रबंध करती थीं। गाँव के अधिकारियों में उरोडेय, पेर्ग्गडे, गार्वुड, सेनबोव और कुलकर्णि के नाम मिलते हैं। राज्य द्वारा लिए जानेवाले कर प्रमुख रूप से दो प्रकार के थे : आय, यथा सिद्धाय, पन्नाय और दंडाय तथा शुंक, यथा वड्डरावुलद शुंक, पेर्ज्जुक और मन्नेय शुंक। इनके अतिरिक्त अरुवण, बल्लि, करवंद, तुलभोग और मसतु का भी निर्देश है। मनेवण गृहकर था, कन्नडिवण (दर्पणक) संभवत: नर्तकियों से लिया जाता था और बलंजीयतेरे व्यापारियों पर था। विवाह के लिये बनाए गए शामियानों पर भी कर का उल्लेख मिलता हैं। इस काल क संस्कृति का स्वरूप उदार और विशाल था और उसमें भारत के अन्य भागों के प्रभाव भी समाविष्ट कर लिए गए थे। स्त्रियों के सामाजिक जीवन में भाग लेने पर बंधन नहीं थे। उच्च वर्ग की स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। नर्तकियों (सूलेयर) की संख्या कम नहीं थी। सतीप्रथा के भी कुछ उल्लेख मिलते हैं। महायोग, शूलब्रह्म और सल्लेखन आदि विधियों से प्राणोत्सर्ग के कुछ उदाहरण मिलते हैं। दिवंगत संबंधी, गुरु अथवा महान व्यक्तियों की स्मृति में निर्माण कराने को परोक्षविनय कहते थे। पोलो जैसे एक खेल का चलन था। मंदिर सामाजिक और आर्थिक जीवन के भी केंद्र थे। उनमें नृत्य, गीत और नाटक के आयोजन होते थे। संगीत में राजवंश के कुछ व्यक्तियों की निपुणता का उल्लेख मिलता है। सेनापति रविदेव के लिये कहा गया है कि जब वह अपना संगीत प्रस्तुत करता था, लोग पूछते थे कि क्या यह मधु की वर्षा अथवा सुधा की सरिता नहीं हैं?

कृषि के लिये जलाशयों के महत्व के अनुरूप ही उनके निर्माण और उनकी मरम्मत के लिये समुचित प्रबंध होता था। आर्थिक दृष्टि से उपयोगी फसलें, जैसे पान, सुपारी कपास और फल, भी पैदा की जाती थीं। उद्योगों और शिल्पों की श्रेणियों के अतिरिक्त व्यापारियों के भी संघ थे। व्यापारियों ने कुछ संघ, तथा नानादेशि और तिशैयायिरत्तु ऐंजूर्रुवर् का संगठन अत्यधिक विकसित था और वे भारत के विभिन्न भागों और विदेशों के साथ व्यापार करते थे। इस काल के सिक्कों के नाम हैं- पोन् अथवा गद्याण, पग अथवा हग, विस और काणि। जयसिंह, जगदेकमल्ल और त्रैयोक्यमल्ल के नाम के सोने और चाँदी के सिक्के उपलब्ध होते हैं। मत्तर, कम्मस, निवर्तन और खंडुग भूमि नापने की इकाइयाँ थी किंतु नापने के दंड का कोई सुनिश्चित माप नहीं था। संभवत: राज्य की ओर से नाप की इकाइयों का व्यवस्थित और निश्चित करने का प्रयत्न हुआ था।

सहनशीलता और उदारता इस युग के धार्मिक जीवन की विशेषताएँ थीं। सभी धर्म और संप्रदाय समान रूप से राजाओं और सामंतों के दान के पात्र थे। ब्राह्मण धर्म में शिव और विष्णु की उपासना का अधिक प्रचलन था, इनमें भी शिव की पूजा राजवंश और देश दोनों में ही अधिक जनप्रिय थी। कलचूर्य लोगों के समय में लिंगायत संप्रदाय के महत्व में वृद्धि हुई थी। कोल्लापुर महालक्ष्मी की शाक्त विधि से पूजा का भी अत्यधिक प्रचार था। इसके बाद कार्तिकेय की पूजा का महत्व था। बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र बेल व गावे और डंबल थे। किंतु बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म का प्रचार अधिक था।

वेद, व्याकरण और दर्शन की उच्च शिक्षा के निमित्त राज्य में विद्यालय या घटिकाएँ थीं जिनकी व्यवस्था के लिये राज्य से अनुदान दिए जाते थे। देश में ब्राह्मणों के अनेक आवास अथवा ब्रह्मपुरी थीं जो संस्कृत के विभिन्न अंगों के गहन अध्ययन के केंद्र थीं।

वादिराज ने जयसिंह द्वितीय के समय में पार्श्वनाथचरित और यशोधरचरित्र की रचना की। विल्हण की प्रसिद्ध रचना विक्रमांकदेवचरित में विक्रमादित्य षष्ठ के जीवनचरित् का विवरण है। विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर अपनी प्रसिद्ध टीका मिताक्षरा की रचना विक्रमादित्य के समय में ही की थी। विज्ञानेश्वर के शिष्य नारायण ने व्यवहारशिरोमणि की रचना की थी। मानसोल्लास अथवा अभिलषितार्थीचिंतामणि जिसमें राजा के हित और रुचि के अनेक विषयों की चर्चा है सोमेश्वर तृतीय की कृति थी। पार्वतीरुक्तिमणीय का रचयिता विद्यामाधव सोमेश्वर के ही दरबार में था। सगीतचूड़ामणि जगदेकमल्ल द्वितीय की कृति थी। संगीतसुधाकर भी किसी चालुक्य राजकुमार की रचना थी। कन्नड़ साहित्य के इतिहास में यह युग अत्यंत समृद्ध था। कन्नड भाषा के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुए। षट्पदी और त्रिपदी छंदों का प्रयोग बढ़ा। चंपू काव्यों की रचना का प्रचलन समाप्त हो चला। रगले नाम के विशेष प्रकार के गीतों की रचना का प्रारंभ इसी काल में हुआ। कन्नड साहित्य के विकास में जैन विद्वानों का प्रमुख योगदान था। सुकुमारचरित्र के रचयिता शांतिनाथ और चंद्रचूडामणिशतक के रचयिता नागवर्माचार्य इसी कल में हुए। रन्न ने, जो तैलप के दरबार का कविचक्रवर्ती था, अजितपुराण और साहसभीमविजय नामक चंपू, रन्न कंद नाम का निघंटु और परशुरामचरिते और चक्रेश्वरचरिते की रचना की। चामंुडराय ने 978 ई. में चामुंडारायपुराण की रचना की। छंदोंबुधि और कर्णाटककादंबरी की रचना नागवर्मा प्रथम ने की थी। दुर्गसिंह ने अपने पंचतंत्र में समकालीन लेखकों में मेलीमाधव के रचयिता कर्णपार्य, एक नीतिग्रंथ के रचयिता कविताविलास और मदनतिलक के रचयिता चंद्रराज का उल्लेख किया है। श्रीधराचार्य को गद्यपद्यविद्याधर की उपाधि प्राप्त थी। चंद्रप्रभचरिते के अतिरिक्त उसने जातकतिलक की रचना की थी जो कन्नड में ज्योतिष का प्रथम ग्रंथ है। अभिनव पंप के नाम से प्रसिद्ध नागचंद्र ने मल्लिनाथपुराण और रामचंद्रचरितपुराण की रचना की। इससे पूर्व वादि कुमुदचंद्र ने भी एक रामायण की रचना की थी। नयसेन ने धर्मामृत के अतिरिक्त एक व्याकरण ग्रंथ भी रचा। नेमिनाथपुराण कर्णपार्य की कृति है। नागवर्मा द्वितीय ने काव्यालोकन, कर्णाटकभाषाभूषण और वास्तुकोश की रचना की। जगद्दल सोमनाथ ने पूज्यवाद के कल्याणकारक का कन्नड में अनुवाद कर्णाटक कल्याणकारक के नाम से किया। कन्नड गद्य के विकास में वीरशैव लोगों का विशेष योगदान था। प्राय: दो सौ लेखकों के नाम मिलते हैं जिनमें कुछ उल्लेखनीय लेखिकाएँ भी थीं। बसव और अन्य वीरशैव लेखकों ने वचन साहित्य को जन्म दिया जिसमें साधारण जनता में वीरशैव सिद्धांतों के प्रचलन के लिये सरल भाषा का उपयोग किया गया। कुछ लिंगायत विद्वानों ने कन्नड साहित्य के अन्य अंगों को भी समृद्ध किया।

अभिलेखों में प्रस्तर के कुछ कुशल शिल्पियों के नाम मिलते हैं यथा शंकरार्य, नागोज और महाकाल। चालुक्य मंदिरों की बाहरी दीवारों और दरवाजों पर सूक्ष्म अलंकारिता मिलती है। मंदिरों के मुख्य प्रवेशद्वार पार्श्व में हैं। विमान और दूसरे विषयों में भी इन मंदिरों का विकसित रूप होयसल मंदिरों में दिखलाई पड़ता है। इन मंदिरों के कुछ उल्लेखनीय उदाहरण हैं लक्कुंदि में काशिविश्वेश्वर, इत्तगि में महादेव और कुरुवत्ति में मल्लिकार्जुन का मंदिर।


वंशावली >>
पुलकेसि १ (543 - 566)
कीर्तिवर्मन् १ (566 - 597)
मंगलेश (597 - 609)
पुलकेसि २ (609 - 642)
विक्रमादित्य १ चालुक्य (655 - 680)
विनयादित्य (680 -696)
विजयादित्य (696 - 733)
विक्रमादित्य २ चालुक्य (733 – 746)
कीर्तिवर्मन् २ (746 – 753)
दन्तिदुर्ग (राष्ट्रकूट साम्राज्य) (735-756) ने चालुक्य साम्राज्य को पराजित कर राष्ट्रकूट साम्राज्य की नींव डाली


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चोल राजवंश / Chola Kingdom

चोल राजवंश / Chola Kingdom

चोल (तमिल - சோழர்) प्राचीन भारत का एक राजवंश था। चोल शब्द की व्युत्पत्ति विभिन्न प्रकार से की जाती रही है। कर्नल जेरिनो ने चोल शब्द को संस्कृत "काल" एवं "कोल" से संबद्ध करते हुए इसे दक्षिण भारत के कृष्णवर्ण आर्य समुदाय का सूचक माना है।
चोल शब्द को संस्कृत "चोर" तथा तमिल "चोलम्" से भी संबद्ध किया गया है किंतु इनमें से कोई मत ठीक नहीं है। आरंभिक काल से ही चोल शब्द का प्रयोग इसी नाम के राजवंश द्वारा शासित प्रजा और भूभाग के लिए व्यवहृत होता रहा है। संगमयुगीन मणिमेक्लै में चोलों को सूर्यवंशी कहा है। चोलों के अनेक प्रचलित नामों में शेंबियन् भी है। शेंबियन् के आधार पर उन्हें शिबि से उद्भूत सिद्ध करते हैं। 12वीं सदी के अनेक स्थानीय राजवंश अपने को करिकाल से उद्भत कश्यप गोत्रीय बताते हैं

चोलों के उल्लेख अत्यंत प्राचीन काल से ही प्राप्त होने लगते हैं। कात्यायन ने चोडों का उल्लेख किया है। अशोक के अभिलेखों में भी इसका उल्लेख उपलब्ध है। किंतु इन्होंने संगमयुग में ही दक्षिण भारतीय इतिहास को संभवत: प्रथम बार प्रभावित किया। संगमकाल के अनेक महत्वपूर्ण चोल सम्राटों में करिकाल अत्यधिक प्रसिद्ध हुए संगमयुग के पश्चात् का चोल इतिहास अज्ञात है। फिर भी चोल-वंश-परंपरा एकदम समाप्त नहीं हुई थी क्योंकि रेनंडु (जिला कुडाया) प्रदेश में चोल पल्लवों, चालुक्यों तथा राष्ट्रकूटों के अधीन शासन करते रहे।



चोलों का उदय
उपर्युक्त दीर्घकालिक प्रभुत्वहीनता के पश्चात् नवीं सदी के मध्य से चोलों का पुनरुत्थन हुआ। इस चोल वंश का संस्थापक विजयालय (850-870-71 ई.) पल्लव अधीनता में उरैयुर प्रदेश का शासक था। विजयालय की वंशपरंपरा में लगभस 20 राजा हुए, जिन्होंने कुल मिलाकर चार सौ से अधिक वर्षों तक शासन किया। विजयालय के पश्चात् आदित्य प्रथम (871-907), परातंक प्रथम (907-955) ने क्रमश: शासन किया। परांतक प्रथम ने पांड्य-सिंहल नरेशों की सम्मिलित शक्ति को, पल्लवों, बाणों, बैडुंबों के अतिरिक्त राष्ट्रकूट कृष्ण दि्वतीय को भी पराजित किया। चोल शक्ति एव साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक परांतक ही था। उसने लंकापति उदय (945-53) के समय सिंहल पर भी एक असफल आक्रमण किया। परांतक अपने अंतमि दिनों में राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण तृतीय द्वारा 949 ई. में बड़ी बुरी तरह पराजित हुआ। इस पराजय के फलस्वरूप चोल साम्राज्य की नींव हिल गई। परांतक प्रथम के बाद के 32 वर्षों में अनेक चोल राजाओं ने शासन किया। इनमें गंडरादित्य, अरिंजय और सुंदर चोल या परातक दि्वतीय प्रमुख थे।

इसके पश्चात् राजराज प्रथम (985-1014) ने चोल वंश की प्रसारनीति को आगे बढ़ाते हुए अपनी अनेक विजयों द्वारा अपने वंश की मर्यादा को पुन: प्रतिष्ठित किया। उसने सर्वप्रथम पश्चिमी गंगों को पराजित कर उनका प्रदेश छीन लिया। तदनंतर पश्िचमी चालुक्यों से उनका दीर्घकालिक परिणामहीन युद्ध आरंभ हुआ। इसके विपरीत राजराज को सुदूर दक्षिण में आशातीत सफलता मिली। उन्होंने केरल नरेश को पराजित किया। पांड्यों को पराजित कर मदुरा और कुर्ग में स्थित उद्गै अधिकृत कर लिया। यही नहीं, राजराज ने सिंहल पर आक्रमण करके उसके उत्तरी प्रदेशों को अपने राज्य में मिला लिया।

राजकाज ने पूर्वी चालुक्यों पर आक्रमण कर वेंगी को जीत लिया। किंतु इसके बाद पूर्वी चालुक्य सिंहासन पर उन्होंने शक्तिवर्मन् को प्रतिष्ठित किया और अपनी पुत्री कुंदवा का विवाह शक्तविर्मन् के लघु भ्राता विमलादित्य से किया। इस समय कलिंग के गंग राजा भी वेंगी पर दृष्टि गड़ाए थे, राजराज ने उन्हें भी पराजित किया।

राजराज ने पश्चात् उनके पुत्र राजेंद्र प्रथम (1012-1044) सिंहासनारूढ़ हुए। राजेंद्र प्रथम भी अत्यंत शक्तिशाली सम्राट् थे। राजेंद्र ने चेर, पांड्य एवं सिंहल जीता तथा उन्हें अपने राज्य में मिला लिया। उन्होंने पश्चिमी चालुक्यों को कई युद्धों में पराजित किया, उनकी राजधानी को ध्वस्त किया किंतु उनपर पूर्ण विजय न प्राप्त कर सके। राजेंद्र के दो अन्य सैनिक अभियान अत्यंत उल्लेखनीय हैं। उनका प्रथम सैनिक अभियान पूर्वी समुद्रतट से कलिंग, उड़ीसा, दक्षिण कोशल आदि के राजाओं को पराजित करता हुआ बंगाल के विरुद्ध हुआ। उन्होंने पश्चिम एवं दक्षिण बंगाल के तीन छोटे राजाओं को पराजित करने के साथ साथ शक्तिशाली पाल राजा महीपाल को भी पराजित किया। इस अभियान का कारण अभिलेखों के अनुसार गंगाजल प्राप्त करना था। यह भी ज्ञात होता है कि पराजित राजाओं को यह जल अपने सिरों पर ढोना पड़ा था। किंतु यह मात्र आक्रमण था, इससे चोल साम्राज्य की सीमाओं पर कोई असर नहीं पड़ा।

राजेंद्र का दूसरा महत्वपूर्ण आक्रमण मलयद्वीप, जावा और सुमात्रा के शैलेंद्र शासन के विरुद्ध हुआ। यह पूर्ण रूप से नौसैनिक आक्रमण था। शैलेंद्र सम्राटों का राजराज से मैत्रीपूर्ण व्यवहार था किंतु राजेंद्र के साथ उनकी शत्रुता का कारण अज्ञात है। राजेंद्र को इसमें सफलता मिली। राजराज की भाँति राजेंद्र ने भी एक राजदूत चीन भेजा।

राजाधिराज प्रथम (1018-1054) राजेंद्र का उत्तराधिकारी था। उसका अधिकांश समय विद्रोहों के शमन में लगा। आरंभ में उसने अनेक छोटे छोटे राज्यों, तथा चेर, पांड्य एवं सिंहल के विद्रोहों का दमन किया। अनंतर इसके चालुक्य सोमेश्वर से हुए कोप्पम् के युद्ध में उसकी मृत्यु हुई। युद्धक्षेत्र में ही राजेंद्र द्वितीय (1052-1064) अभिषिक्त हुए। चालुक्यों के विरुद्ध हुए इस युद्ध में उनकी विजय हुई। चालुक्यों के साथ युद्ध दीर्घकालिक था। राजेंद्र द्वितीय के उत्तराधिकारी वीर राजेंद्र (1063-1069) ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की और प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य पर पूर्ववत् शासन किया। अधिराजेंद्र (1067-1070) वीर राजेंद्र का उत्तराधिकारी था किंतु कुछ महीनों के शासन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम ने उससे चोल राज्यश्री छीन ली।

कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120) पूर्वी चालुक्य सम्राट् राजराज का पुत्र था। कुलोत्तुंग की माँ एवं मातामही क्रमश: राजेंद्र (प्रथम) चोल तथा राजराज प्रथम की पुत्रियाँ थीं। कुलोत्तंुग प्रथम स्वयं राजेंद्र द्वितीय की पुत्री से विवाहित था। कुलोत्तुंग ने अपने विपक्ष एवं अधिराजेंद्र के पक्ष से हुए समस्त विद्रोहों का दमन करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। अपने विस्तृत शासनकाल में उसने अधिराजेंद्र के हिमायती एवं बहनोई चालुक्य सम्राट् विक्रमादित्य के अनेक आक्रमणों एवं विद्रोहों का सफलतापूर्वक सामना किया। सिंहल फिर भी स्वतंत्र हो ही गया। युवराज विक्रम चोल के प्रयास स कलिंग का दक्षिणी प्रदेश कुलोत्तुंग के राज्य में मिला लिया गया। कुलोत्तुंग ने अपने अंतिम दिनों तक सिंहल के अतिरिक्त प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य तथा दक्षिणी कलिंग प्रदेश पर शासन किया। उसने एक राजदूत भी चीन भेजा।

विक्रम चोल (1118-1133) कुलोत्तुंग का उत्तराधिकारी हुआ। लगभग 1118 में विक्रमादित्य छठे ने वेंगी चोलों से छीन ली। होयसलों ने भी चोलों को कावेरी के पार भगा दिया और मैसूर प्रदेश को अधिकृत कर लिया।

कुलोत्तुंग प्रथम के बाद का लगभग सौ वर्ष का चोल इतिहास अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। इस अवधि में विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराज द्वितीय (1146-1173), राजाधिराज द्वितीय (1163-1179), कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218) ने शासन किया। इन राजाओं के समय चोलों का उत्तरोत्तर अवसान होता रहा। राजराज तृतीय (1216-1246) को पांड्यों ने बुरी तरह पराजित किया और उसकी राजधानी छीन ली। चोल सम्राट् अपने आक्रामकों एवं विद्रोहियों के विरुद्ध शक्तिशाली होयसलों से सहायता लेते थे और इसी कारण धीरे-धीरे वे उनके साथ की कठपुतली बन गए। राजराज को एकबार पांड्यों से पराजित होकर भागते समय कोप्पेरुंजिग ने आक्रमण कर बंदी बना लिया, पर छोड़ दिया।

चोल वंश का अंतिम राजा राजेंद्र तृतीय (1246-1279) हुआ। आरंभ में राजेंद्र को पांड्यों के विरुद्ध आंशिक सफलता मिली, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि तेलुगु-चोड साम्राज्य पर गंडगोपाल तिक्क राजराज तृतीय की नाममात्र की अधीनता में शासन कर रहा था। गणपति काकतीय के कांची आक्रमण के पश्चात् तिक्क ने उसी की अधीनता स्वीकार की। अंतत: जटावर्मन् सुंदर पांड्य ने उत्तर पर आक्रमण किया और चोलों को पराजित किया। इसके बाद से चोल शासक पांड्यों के अधीन रहे और उनकी यह स्थिति भी 1310 में मलिक काफूर के आक्रमण से समाप्त हो गई। (चोल सम्राट् साधारणतया अपने राज्य का आरंभ अपने यौवराज्याभिषेक से मानते थे और इसीलिए उनके काल के कुछ आरंभिक वर्ष एवं उनके तत्काल पूर्ववर्ती सम्राट् के कुछ अंतिम वर्षों में समानता प्राप्त होती है


शासन व्यवस्था[संपादित करें]
चोलो के अभिलेखों आदि से ज्ञात होता है कि उनका शासन सुसंगठित था। राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी राजा मंत्रियों एवं राज्याधिकारियों की सलाह से शासन करता था। शासनसुविधा की दृष्टि से सारा राज्य अनेक मंडलों में विभक्त था। मंडल कोट्टम् या बलनाडुओं में बँटे होते थे। इनके बाद की शासकीय परंपरा में नाडु (जिला), कुर्रम् (ग्रामसमूह) एवं ग्रामम् थे। चोल राज्यकाल में इनका शासन जनसभाओं द्वारा होता था। चोल ग्रामसभाएँ "उर" या "सभा" कही जाती थीं। इनके सदस्य सभी ग्रामनिवासी होते थे। सभा की कार्यकारिणी परिषद् (आडुगणम्) का चुनाव ये लोग अपने में से करते थे। उत्तरमेरूर से प्राप्त अभिलेख से उस ग्रामसभा के कार्यों आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। उत्तरमेरूर ग्रामशासन सभा की पाँच उपसमितियों द्वारा होता था। इनके सदस्य अवैतनिक थे एवं उनका कार्यकाल केवल वर्ष भर का होता था। ये अपने शासन के लिए स्वतंत्र थीं एवं सम्राटादि भी उनकी कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे।

चोल शासक प्रसिद्ध भवननिर्माता थे। सिंचाई की व्यवस्था, राजमार्गों के निर्माण आदि के अतिरिक्त उन्होंने नगरों एवं विशाल मंदिर तंजौर में बनवाया। यह प्राचीन भारतीय मंदिरों में सबसे अधिक ऊँचा एवं बड़ा है। तंजौर के मंदिर की दीवारों पर अंकित चित्र उल्लेखनीय एवं बड़े महत्वपूर्ण हैं। राजेंद्र प्रथम ने अपने द्वारा निर्मित नगर गंगैकोंडपुरम् (त्रिचनापल्ली) में इस प्रकार के एक अन्य विशाल मंदिर का निर्माण कराया। चोलों के राज्यकाल में मूर्तिकला का भी प्रभूत विकास हुआ। इस काल की पाषाण एवं धातुमूर्तियाँ अत्यंत सजीव एवं कलात्मक हैं।

चोल शासन के अंतर्गत साहित्य की भी बड़ी उन्नति हुई। इनके शाक्तिशाली विजेताओं की विजयों आदि को लक्ष्य कर अनेकानेक प्रशस्ति पूर्ण ग्रंथ लिखे गए। इस प्रकार के ग्रंथों में जयंगोंडार का "कलिगंत्तुपर्णि" अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त तिरुत्तक्कदेव लिखित "जीवक चिंतामणि" तमिल महाकाव्यों में अन्यतम माना जाता है। इस काल के सबसे बड़े कवि कंबन थे। इन्होंने तमिल "रामायण" की रचना कुलोत्तुंग तृतीय के शासनकाल में की। इसके अतिरिक्त व्याकरण, कोष, काव्यशास्त्र तथा छंद आदि विषयों पर बहुत से महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना भी इस समय हुई।


सांस्कृतिक स्थिति[संपादित करें]
चोल साम्राज्य की शक्ति बढ़ने के साथ ही सम्राट् के गौरव ओर ऐश्वर्य के भव्य प्रदर्शन के कार्य बढ़ गए थे। राजभवन, उसमें सेवकों का प्रबंध ओर दरबार में उत्सवों और अनुष्ठानों में यह प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। सम्राट् अपने जीवनकाल ही में युवराज को शासनप्रबंध में अपने साथ संबंधित कर लेता था। सम्राट के पास उसकी मौखिक आज्ञा के लिए भी विषय एक सुनिश्चित प्रणाली के द्वारा आता था, एक सुनिश्चित विधि में ही वह कार्य रूप में परिणत होता था। राजा को परामर्श देने के लिए विभिन्न प्रमुख विभागों के कर्मचारियों का एक दल, जिसे उडनकूट्टम् कहते थे। सम्राट् के निरंतर संपर्क में रहता था। सम्राट् के निकट संपर्क में अधिकारियों का एक संगठित विभाग था जिसे ओलै कहते थे1 चोल साम्राज्य में नौकरशाही सुसंगठित और विकसित थी जिसमें अधिकारियों के उच्च (पेरुंदनम्) और निम्न (शिरुदनम्) दो वर्ग थे। केंद्रीय विभाग की ओर से स्थानीय अधिकारियों का निरीक्षण और नियंत्रण करने के लिए कणकाणि नाम के अधिकारी होते थेे। शासन के लिए राज्य वलनाडु अथवा मंडलम्, नाडु और कूर्रम् में विभाजित था। संपूर्ण भूमि नापी हुई थी और करदायी तथा करमुक्त भूमि में बँटी थी। करदायी भूमि के भी स्वाभाविक उत्पादनशक्ति और फसल के अनुसार, कई स्तर थे। कर के लिए संपूर्ण ग्राम उत्तरदायी था। कभी-कभी कर एकत्रित करने में कठोरता की जाती थी। भूमिकर के अतिरिक्त चुंगी, व्यवसायों और मकानों तथा विशेष अवसरों और उत्सवों पर भी कर थे। सेना अनेक सैन्य दलों में बँटी थी जिनमें से कई के विशिष्ट नामों का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। सेना राज्य के विभिन्न भागों में शिविर (कडगम) के रूप में फैली थी। दक्षिण-पूर्वी एशिया में चोलों की विजय उनके जहाजी बेड़े के संगठन और शक्ति का स्पष्ट प्रमाण है। न्याय के लिए गाँव और जाति की सभाओं के अतिरिक्त राज्य द्वारा स्थापित अदालतें भी थीं। निर्णय सामाजिक व्यवस्थाओं, लेखपत्र और साक्षी के प्रमाण के आधार पर होते थे। मानवीय साक्ष्यों के अभाव में दिव्यों का भी सहारा लिया जाता था।

चोल शासन की प्रमुख विशेषता सुसंगठित नौकरशाही के साथ उच्च कोटि की कुशलतावली स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का सुंदर और सफल सामंजस्य है। स्थानीय जीवन के विभिन्न अंगों के लिए विविध सामूहिक संस्थाएँ थीं जो परस्पर सहयोग से कार्य करती थीं। नगरम् उन स्थानों की सभाएँ थीं जहाँ व्यापारी वर्ग प्रमुख था। ऊर गँव के उन सभी व्यक्तियों की सभा थी जिनके पास भूमि थी। सभा ब्रह्मदेय गाँवों के ब्राह्मणों की सामूहिक संस्था का विशिष्ट नाम था। राज्य की ओर से साधारण नियंत्रण और समय पर आयव्यय के निरीक्षण के अतिरिक्त इन सभाओं को पूर्ण स्वतंत्रता थी। इनके कार्यों के संचालन के लिए अत्यंत कुशल और संविधान के नियमों की दृष्टि से संगठित और विकसित समितियों की व्यवस्था थी जिन्हें वारियम् कहते थे। उत्तरमेरूर की सभा ने परांतक प्रथम के शासनकाल में अल्प समय के अंतर पर ही दो बार अपने संविधान में परिवर्तन किए जो इस बात का प्रमाण है कि ये सभाएँ अनुभव के अनुसार अधिक कुशल व्यवस्था को अपनाने के लिये तत्पर रहती थीं। इन सभाओं के कर्तव्यों का क्षेत्र व्यापक और विस्तृत था।

चोल नरेशों ने सिंचाई की सुविधा के लिए कुएँ और तालाब खुदवाए और नदियों के प्रवाह को रोककर पत्थर के बाँध से घिरे जलाशय (डैम) बनवाए। करिकाल चोल ने कावेरी नदी पर बाँध बनवाया था। राजेंद्र प्रथम ने गंगैकोंड-चोलपुरम् के समीप एक झील खुदवाई जिसका बाँध 16 मील लंबा था। इसको दो नदियों के जल से भरने की व्यवस्था की गई और सिंचाई के लिए इसका उपयोग करने के लिए पत्थर की प्रणालियाँ और नहरें बनाई गईं। आवागमन की सुविधा के लिए प्रशस्त राजपथ और नदियों पर घाट भी निर्मित हुए।

सामाजिक जीवन में यद्यपि ब्राह्मणों को अधिक अधिकार प्राप्त थे और अन्य वर्गों से अपना पार्थक्य दिखलाने के लिए उन्होंने अपनी अलग बस्तियाँ बसानी शु डिग्री कर दी थीं, फिर ना विभिन्न वर्गों के परस्पर संबंध कटु नहीं थे। सामाजिक व्यवस्था को धर्मशास्त्रों के आदेशों और आदर्शों के अनुकूल रखने का प्रयन्त होता था। कुलोत्तुंग प्रथम के शासनकाल में एक गाँव के भट्टों ने शास्त्रों का अध्ययन कर रथकार नाम की अनुलोम जाति के लिए सम्मत जीविकाओं का निर्देश किया। उद्योग और व्यवसाय में लगे सामाजिक वर्ग दो भागों में विभक्त थे- वलंगै और इडंगै। स्त्रियाँ पर सामाजिक जीवन में किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं था। वे संपत्ति की स्वामिनी होती थीं। उच्च वर्ग के पुरुष बहुविवाह करते थे। सती का प्रचार था। मंदिरों में गुणशीला देवदासियाँ रह करती थीं। समाज में दासप्रथा प्रचलित थी। दासों की कई कोटियाँ होती थीं।

आर्थिक जीवन का आधार कृषि थी। भूमिका स्वामित्व समाज में सम्मान की बात थी। कृषि के साथ ही पशुपालन का व्यवसाय भी समुन्नत था। स्वर्णकार, धातुकार और जुलाहों की कला उन्नत दशा में थी। व्यापारियों की अनेक श्रेणियाँ थीं जिनका संगठन विस्तृत क्षेत्र में कार्य करता था। नानादेश-तिशैयायिरत्तु ऐज्जूरुंवर व्यापारियों की एक विशाल श्रेणी थी जो वर्मा और सुमात्रा तक व्यापार करती थी।

चोल सम्राट शिव के उपासक थे लेकि उनकी नीति धार्मिक सहिष्णुता की थी। उन्होंने बौद्धों को भी दान दिया। जैन भी शांतिपूर्वक अपने धर्म का पालन और प्रचार करते थे। पूर्वयुग के तमिल धार्मिक पद्य वेदों जैसे पूजित होने लगे और उनके रचयिता देवता स्वरूप माने जाने लगे। नंबि आंडार नंबि ने सर्वप्रथम राजराज प्रथम के राज्यकाल में शैव धर्मग्रंथों को संकलित किया। वैष्णव धर्म के लिए यही कार्य नाथमुनि ने किया। उन्होंने भक्ति के मार्ग का दार्शनिक समर्थन प्रस्तुत किया। उनके पौत्र आलवंदार अथवा यामुनाचार्य का वैष्णव आचार्यों में महत्वपूर्ण स्थान है (दे. "यामुनाचार्य")। रामानुज ने विशिष्टाद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया मंदिरों की पूजा विधि में सुधार किया और कुछ मंदिरों में वर्ष में एक दिन अंत्यजों के प्रवेश की भी व्यवस्था की। शैवों में भक्तिमार्ग के अतिरिक्त बीभत्स आचारोंवाले कुछ संप्रदाय, पाशुपत, कापालिक और कालामुख जैसे थे, जिनमें से कुछ स्त्रीत्व की आराधना करते थे, जो प्राय: विकृत रूप ले लेती थी। देवी के उपासकों में अपना सिर काटकर चढ़ाने की भी प्रथा थी। इस युग के धार्मिक जीवन में मंदिरों का विशेष महत्व था। छोटे या बड़े मंदिर, चोल राज्य के प्राय: सभी नगरों और गाँवों में इस युग में बने। ये मंदिर, शिक्षा के केंद्र भी थे। त्योहारों और उत्सवों पर इनमें गान, नृत्य, नाट्य और मनोरंजन के आयोजन भी होते थे। मंदिरों के स्वामित्व में भूमि भी होती थी और कई कर्मचारी इनकी अधीनता में होते थे। ये बैंक का कार्य थे। कई उद्योगों और शिल्पों के व्यक्तियों को मंदिरों के कारण जीविका मिलती थी।

चोलों के मंदिरों की विशेषता उनके विमानों और प्रांगणों में दिखलाई पड़ती है। इनके शिखरस्तंभ छोटे होते हैं, किंतु गोपुरम् पर अत्यधिक अलंकरण होता है। प्रारंभिक चोल मंदिर साधारण योजना की कृतियाँ हैं लेकिन साम्राज्य की शक्ति और साधनों की वृद्धि के साथ मंदिरों के आकार और प्रभाव में भी परिवर्तन हुआ। इन मंदिरों में सबसे अधिक प्रसिद्ध और प्रभावोत्पादक राजराज प्रथम द्वारा तंजोर में निर्मित राजराजेश्वर मंदिर, राजेंद्र प्रथम द्वारा गंगैकोंडचोलपुरम् में निर्मित गंगैकोंडचोलेश्वर मंदिर है। चोल युग अपनी कांस्य प्रतिमाओं की सुंदरता के लिए भी प्रसिद्ध है। इनमें नटराज की मूर्तियाँ सर्वात्कृष्ट हैं। इसके अतिरिक्त शिव के दूसरे कई रूप, ब्रह्मा, सप्तमातृका, लक्ष्मी तथा भूदेवी के साथ विष्णु, अपने अनुचरों के साथ राम और सीता, शैव संत और कालियदमन करते हुए कृष्ण की मूर्तियाँ भी उल्लेखनीय हैं।

तमिल साहित्य के इतिहास में चोल शासनकाल को स्वर्ण युग की संज्ञा दी जाती है। प्रबंध साहित्यरचना का प्रमुख रूप था। दर्शन में शैव सिद्धांत के शास्त्रीय विवेचन का आरंभ हुआ। शेक्किलार का तिरुत्तोंडर् पुराणम् या पेरियपुराणम् युगांतरकारी रचना है। वैष्णव भक्ति-साहित्य और टीकाओं की भी रचना हुई। आश्चर्य है कि वैष्णव आचार्य नाथमुनि, यामुनाचार्य और रामानुज ने प्राय: संस्कृत में ही रचनाएँ की हैं। टीकाकारों ने भी संस्कृत शब्दों में आक्रांत मणिप्रवाल शैली अपनाई। रामानुज की प्रशंसा में सौ पदों की रचना रामानुजनूर्रदादि इस दृष्टि से प्रमुख अपवाद है। जैन और बौद्ध साहित्य की प्रगति भी उल्लेखनीय थी। जैन कवि तिरुत्तक्कदेवर् ने प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य जीवकचिंतामणि की रचना 10वीं शताब्दी में की थी। तोलामोलि रचित सूलामणि की गणना तमिल के पाँच लघु काव्यों में होती है। कल्लाडनार के कल्लाडम् में प्रेम की विभिन्न मनोदशाओं पर सौ पद हैं। राजकवि जयन्गोंडा ने कलिंगत्तुप्परणि में कुलोत्तुंग प्रथम के कलिंगयुद्ध का वर्णन किया है। ओट्टकूत्तन भी राजकवि था जिसकी अनेक कृतियों में कुलोत्तुंग द्वितीय के बाल्यकाल पर एक पिल्लैत्तामिल और तीन चोल राजाओं पर उला उल्लेखनीय हैं। प्रसिद्ध तमिल रामायणम् अथवा रामावतारम् की रचना कंबन् ने कुलोत्तुंग तृतीय के राज्यकाल में की थी। किसी अज्ञात कवि की सुंदर कृति कुलोत्तुंगन्कोवै में कुलोत्तंुग द्वितीय के प्रारंभिक कृत्यों का वर्णन है। जैन विद्वान् अमितसागर ने छंदशास्त्र पर याप्परुंगलम् नाम के एक ग्रंथ और उसके एक संक्षिप्त रूप (कारिगै) की रचना की। बौद्ध बुद्धमित्र ने तमिल व्याकरण पर वीरशोलियम् नाम का ग्रंथ लिखा। दंडियलंगारम् का लेखक अज्ञात है; यह ग्रंथ दंडिन के काव्यादर्श के आदर्श पर रचा गया है। इस काल के कुछ अन्य व्याकरण ग्रंथ हैं- गुणवीर पंडित का नेमिनादम् और वच्चणंदिमालै, पवणंदि का नन्नूल तथा ऐयनारिदनार का पुरप्पोरलवेण्बामालै। पिंगलम् नाम का कोश भी इसी काल की कृति है।

चोलवंश के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चोल नरेशों ने संस्कृत साहित्य और भाषा के अध्ययन के लिए विद्यालय (ब्रह्मपुरी, घटिका) स्थापित किए और उनकी व्यवस्था के लिए समुचित दान दिए। किंतु संस्कृत साहितय में, सृजन की दृष्टि से, चोलों का शासनकाल अत्यल्प महत्व का है। उनके कुछ अभिलेख, जो संस्कृत में हैं, शैली में तमिल अभिलेखों से नीचे हैं। फिर भी वेंकट माधव का ऋग्वेद पर प्रसिद्ध भाष्य परांतक प्रथम के राज्यकाल क रचना है। केशवस्वामिन् ने नानार्थार्णवसंक्षेप नामक कोश को राजराज द्वितीय की आज्ञा पर ही बनाया था।

वंशावली[संपादित करें]
विजयालय चोल 848-871(?)
आदित्य १ 871-907 -
परन्तक चोल १ 907-950
गंधरादित्य 950-957
अरिंजय चोल 956-957
सुन्दर चोल 957-970
उत्तम चोल 970-985
राजाराज चोल १ 985-1014
राजेन्द्र चोल १ 1012-1044
राजाधिराज चोल १ 1018-1054
राजेन्द्र चोल २ 1051-1063
वीरराजेन्द्र चोल 1063-1070
अधिराजेन्द्र चोल 1067-1070
चालुक्य चोल
कुलोतुंग चोल १ 1070-1120
कुलोतुंग चोल २ 1133-1150
राजाराज चोल २ 1146-1163
राजाधिराज चोल २ 1163-1178
कुलोतुंग चोल ३ 1178-1218
राजाराज चोल ३ 1216-1256
राजेन्द्र चोल ३ 1246-1279





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Wednesday, February 24, 2016

List of Council of Ministers in Modi's cabinet

List of Council of Ministers in Modi's cabinet



CABINET MINISTERS
Rajnath Singh: Home Affairs
Sushma Swaraj: External Affairs, Overseas Indian Affairs
Arun Jaitley Finance, Corporate Affairs, Information & Broadcasting
M. Venkaiah Naidu: Urban Development, Housing and Urban Poverty Alleviation, Parliamentary Affairs
Nitin Gadkari: Road Transport and Highways, Shipping
Manohar Parrikar: Defence
Suresh Prabhu: Railways
D.V. Sadananda Gowda: Law & Justice
Uma Bharati: Water Resources, River Development and Ganga Rejuvenation
Dr. Najma A. Heptulla: Minority Affairs
Ramvilas Paswan: Consumer Affairs, Food and Public Distribution
Kalraj Mishra: Micro, Small and Medium Enterprises
Maneka Gandhi: Women and Child Development
Ananthkumar: Chemicals and Fertilizers
Ravi Shankar Prasad: Communications and Information Technology
Jagat Prakash Nadda: Health & Family Welfare
Ashok Gajapathi Raju: Civil Aviation
Anant Geete: Heavy Industries and Public Enterprises
Harsimrat Kaur Badal: Food Processing Industries
Narendra Singh Tomar: Mines, Steel
Chaudhary Birender Singh: Rural Development, Panchayati Raj, Drinking Water and Sanitation
Jual Oram: Tribal Affairs
Radha Mohan Singh: Agriculture
Thaawar Chand Gehlot: Social Justice and Empowerment
Smriti Irani: Human Resource Development
Dr. Harsh Vardhan: Science and Technology, Earth Sciences
MINISTERS OF STATE (Independent Charge)
General V.K. Singh: Statistics and Programme Implementation (Independent Charge), External Affairs, Overseas Indian Affairs
Inderjit Singh Rao: Planning (Independent Charge), Defence
Santosh Kumar Gangwar: Textiles (Independent Charge)
Bandaru Dattatreya: Labour and Employment (Independent Charge)
Rajiv Pratap Rudy: Skill Development & Entrepreneurship (Independent Charge), Parliamentary Affairs
Shripad Yesso Naik: AAYUSH (Independent Charge), Health & Family Welfare
Dharmendra Pradhan: Petroleum and Natural Gas (Independent Charge)
Sarbananda Sonowal: Youth Affairs and Sports (Independent Charge)
Prakash Javadekar: Environment, Forest and Climate Change (Independent Charge)
Piyush Goyal: Power (Independent Charge), Coal (Independent Charge), New and Renewable Energy (Independent Charge)
Jitendra Singh: Development of North Eastern Region (Independent Charge), Prime Minister’s Office, Personnel, Public Grievances & Pensions, Department of Atomic Energy, Department of Space
Nirmala Sitharaman: Commerce and Industry (Independent Charge)
Dr. Mahesh Sharma: Culture (Independent Charge), Tourism (Independent Charge), Civil Aviation
MINISTERS OF STATE
Mukhtar Abbas Naqvi: Minority Affairs, Parliamentary Affairs
Ram Kripal Yadav: Drinking Water & Sanitation
Haribhai Parthibhai Chaudhary: Home Affairs
Sanwar Lal Jat: Water Resources, River Development & Ganga Rejuvenation
Mohanbhai Kalyanjibhai Kundariya: Agriculture
Giriraj Singh: Micro, Small & Medium Enterprises
Hansraj Gangaram Ahir: Chemicals & Fertilizers
G.M. Siddeshwara: Heavy Industries & Public Enterprises
Manoj Sinha: Railways
Nihalchand: Panchayati Raj
Upendra Kushwaha: Human Resource Development
Radhakrishnan P.: Road Transport & Highways, Shipping
Kiren Rijiju: Home Affairs
Krishan Pal: Social Justice & Empowerment
Dr. Sanjeev Kumar Balyan: Agriculture
Manuskhbhai Dhanjibhai Vasava: Tribal Affairs
Raosaheb Dadarao Danve: Consumer Affairs, Food and Public Distribution
Vishnu Deo Sai: Mines, Steel
Sudarshan Bhagat: Rural Development
Prof. (Dr.) Ram Shankar Katheria: Human Resource Development
Y.S. Chowdary: Science and Technology, Earth Science
Jayant Sinha: Finance
Col. Rajyavardhan Singh Rathore: Information & Broadcasting
Babul Supriyo: Urban Development, Housing and Urban Poverty Alleviation
Sadhvi Niranjan Jyoti: Food Processing Industries
Vijay Sampla: Social Justice & Empowerment


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Sunday, February 21, 2016

MOST IMPORTANT INDIAN WARS


MOST IMPORTANT INDIAN WARS

HYDESPES WAR-IN 326 BC-BETWEEN PORUS AND SIKANDAR AT JHELAM RIVER; WINNER- PORAS FROM PUNJAB...

CHANDRAGUPTA-SELYUKAS WAR-IN 305 BC BETWEEN CHANDRAGUPTA AND SELYUKAS; WINNER-CHANDRAGUPTA
KALINGA WAR-IN 261 BC BETWEEN ASHOKA AND KALINGA'S KING; WINNER - ASHOKA..
WAR OF SINDH-IN 712 AD MOHAMMD KASIM ATTACK IN INDIA..THE FIRST ATTACK IN INDIA BY ARABIANS
TARAEN'S FIRST WAR-IN 1191 AD-BETWEEN MOHAMMAD GAURI AND PRITHVIRAJ CHAUHAN.. WINNER- PRITVIRAJ CHAUHAN
TARAEN'S SECOND WAR-IN 1192 AD BETWEEN MOHAMMAD GAURI AND PRITHVIRAJ CHAUHAN; WINNER- MOHAMMAD GAURI
CHANDAVAR WAR-IN 1194 AD BETWEEN MOHAMMAD GAURI AND KANNAUJ'S KING JAICHAND(sanyogita"s father)
PANIPAT FIRST WAR-IN 1526 BETWEEN IBRAHIM LODI AND BABAR; WINNER- BABAR
KHANWA WAR- IN 1527 AD BETWEEN BABAR AND MAHARANA SANGA(UDAIPAUR'S KING)
GHAGHARA WAR-IN 1529 BETWEEN MAHMOOD LODI AND BABAR; WINNER- BABAR
CHAUSA WAR IN 1539 BETWEEN SHERSHAH SOORI AND HUMAYU; WINNER- SHERSHAH
BILIGRAM WAR-IN 1540 BETWEEN HUMAYU AND SHERSHAH; WINNER- SHER SHAH SOORI
PANIPAT'S SECOND WAR-IN 1556 BETWEEN AKBAR AND HEMU; WINNER-AKBAR
TALIKOTA WAR-IN 1565 BETWEEN VIJAYNAGAR'S KING RAMRAI AND BIJAPUR; GOLKUNDA; BIDAR;AHAMAD NAGAR' MUSLIM KING..  WINNER-ANTI VIJAYNAGAR GROUP
HALDIGHATI WAR-IN 1576 BETWEEN AKBAR AND MAHARANA PRATAP; WINNER-AKBAR
PLASI WAR-IN 1757 BETWEEN SIRAJUDOLLA AND LORD CLIVE; WINNER-LORD CLIVE
WANDIWASH WAR-IN 1760 BETWEEN BRITISH AND FRENCHIES ARMY WINNER- BRITISH ARMY
PANIPAT'S THIRD WAR-IN 1761 BETWEEN AHAMAD SHAH ABDALI ANDMARATHAS; WINNER- MARATHAS
BAKSHAR WAR-IN 1764 BETWEEN BRITISH ARMY AND SHUJJAUDOLLA, MEER KASIM AND SHAH ALAM SECOND; WINNER-BRITISH
FIRST MAYSOR WAR-IN 1767-69 BETWEEN HAIDARALI AND BRITISH ARMY ; WINNER- HAIDAR ALI
SECOND MYSOR WAR-IN 1780-84 BETWEEN HAIDAR ALI AND BRITISH ARMY; WINNER- NO ONE
THIRD MYSORE WAR-IN 1790 BETWEEN TIPU SULTAN AND BRITISH ARMY; WINNER-NO ONE
FOURT MYSORE WAR-1799 BETWEEN TIPU SULTAN AND BRITISH ARMY; WINNER- BRITISH
CHILLIYAN WAR-IN 1849 BETWEEN EAST INDIA COMPANY AND SIKHS; WINNER- BRITISH
FIRST INDIA-PAK WAR-IN 1947 BETWEEN INDIA AND PAKISTAN; IN THIS WAR PAK COVERD JAMMU'S 800000 SQ. KM'S LAND IN HIS HAND..
CHINA WAR-IN 1962 BETWEEN INDIA AND CHINA; ONEWAY PEACE AGREEMENT WAS DONE BY INDIA.. INDIA LOST LITTLE LAND IN THIS WAR
SECOND INDIA-PAK WAR- IN 1965 BETWEEN INDIA AND PAKISTAN; INDIA WIN
THIRD INDIA-PAK WAR IN 1971 BETWEEN INDIA AND PAKISTAN, RESULT- NEW COUNTRY BANGLADESH
KARGIL WAR-IN 1999 BETWEEN INDIA AND PAKISTAN; WINNER- INDIA



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Who is Who In India (Parliament , Ministers, Cabinet)

Who is Who In India (Parliament , Ministers, Cabinet)

राष्ट्रपति – श्री प्रणब मुखर्जी
उप-राष्ट्रपति – श्री हामिद अन्सारी
प्रधानमन्त्री – श्री नरेन्द्र मोदी

कैबिनेट मन्त्री
—————
गृह – राजनाथ सिंह
विदेश व प्रवासी भारतीय मामले – सुषमा स्वराज
रक्षा - मनोहर परिकर
वित्त, कम्पनी मामले – अरुण जेटली
शहरी विकास, आवास एवं संसदीय मामले – एम. वेंकैया नायडू
भूतल परिवहन एवं उच्च राष्ट्रीय पथ, जहाजरानी – नितिन गडकरी
रेलवे – डी.वी. सदानन्द गौड़ा
जल संसाधन, नदी विकास एवं गगा सफाई – उमा भारती
अल्पसंख्यक मामले – डॉ. नजमा हेपतुल्ला
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण – डॉ. हर्षवर्द्धन
उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनकि वितरण – रामविलास पासवान
सूक्ष्म, मध्यम एवं लघु उद्योग – कलराज मिश्र
महिला एवं बाल विकास – मेनका गाँधी
रसायन एवं उर्वरक – अनन्त कुमार
कानून एवं न्याय, संचार एवं सूचना तकनीक – रविशंकर प्रसाद
नागरिक उड्डयन – अशोक गजपति राजू
भारी उद्योग एवं सार्वजनिक उद्यम – अनन्त गीते
खाद्य प्रसंस्करण उद्योग – हरसिमरत कौर
खान, स्टील, श्रम एवं रोजगार – नरेन्द्र सिंह तोमर
आदिवासी मामले – जुएल उराँव
कृषि – राधा मोहन सिंह
सामाजिक न्याय और अधिकारिता – थावर चन्द्र गहलोत
मानव संसाधन – स्मृति ईरानी

राज्यमन्त्री (स्वतन्त्र प्रभार)
—————————–
पूर्वोत्तर क्षेत्र का विकास, विदेश एवं प्रवासी मामले – जनरल (रिटा.) वी.के. सिंह
योजना, सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन, रक्षा – राव इन्द्रजीत सिंह
कपड़ा, संसदीय मामले, जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा सफाई – संतोष कुमार गंगवार
पर्यटन – श्रीपद यसो नाइक
पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस – धर्मेन्द्र प्रधान
कौशल विकास, उद्यमिता, युवा मामले और खेल – सर्वानन्द सोनोवाल
सूचना एवं प्रसारण, वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन, संसदीय मामले – प्रकाश जावडेकर
ऊर्जा, कोयला एवं अक्षय ऊर्जा – पीयूष गोयल
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, भू-विज्ञान, पीएमओ, कार्मिक, लोक प्रशासन एवं पेन्शन, परमाणु ऊर्जा, अन्तरिक्ष विभाग – डॉ. जितेन्द्र सिंह
वाणिज्य एवं उद्योग, वित्त, कम्पनी मामले – निर्मला सीतारमन

राज्यमन्त्री
————
नागरिक उड्डयन – जी.एम. सिद्देश्वर
रेलवे – मनोज सिन्हा
रसायन एवं उर्वरक – निहाल चन्द
ग्रामीण विकास, पंचायती राज, पेयजल एवं सफाई – उपेन्द्र कुशवाह
भारी उद्योग एवं सार्वजनिक उद्यम – पी. राधाकृष्णन
गृह – किरण रिजिजू
भूतल परिवहन एवं उच्च राष्ट्रीय पथ, जहाजरानी – कृष्णपाल
कृषि, खाद्य प्रसंस्करण, उद्योग – संजीव कुमार बालियान
आदिवासी मामले – मनसुखभाई धांजीभाई वसावा
उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण – रावसाहेब दादाराव दानवे
खान, स्टील, श्रम एवं रोजगार – विष्णुदेव साय
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता – सुदर्शन भगत


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BHARTIYA SAMVIDHAN KUCHH TATHYA Some Facts About Indian Constitution


BHARTIYA SAMVIDHAN KUCHH TATHYA
Some Facts About Indian Constitution



● भारतीय संविधान में कुल कितने अनुच्छेद हैं— 444
● भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में यह लिखा है कि भारत राज्यों का एक संघ होगा— अनुच्छेद-1
● किस अनुच्छेद में नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं— अनुच्छेद 12-35
● किस अनुच्छेद में नागरिकता संबंधी प्रावधान है— अनुच्छेद 5-11
● नौकरियों तथा शैक्षणिक संस्थाओं में समाज के कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने के लिए केंद्र सरकार को कौन-सा अनुच्छेद अधिकार प्रदान करता है—  अनुच्छेद-16
● संविधान के किस अनुच्छेद में राज्य में नीति-निर्देशक तत्वों का उल्लेख है— अनुच्छेद 36-51
● भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा वर्णित है— अनुच्छेद-39
● संविधान के किस अनुच्छेद के अंतर्गत भारत में राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाया जा सकता है—अनुच्छेद-61
● किस अनुच्छेद में मंत्रिगण सामूहिक रुप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं— अनुच्छेद-75
● महान्यायवादी की नियुक्ति किस अनुच्छेद के अंतर्गत की जाती है— अनुच्छेद-76
● संविधान के किस अनुच्छेद के अंतर्गत राष्ट्रपति लोकसभा भंग कर सकता है— अनुच्छेद-85
● किस अनुच्छेद में संसद के संयुक्त अधिवेशन का प्रावधान है— अनुच्छेद-108
● संविधान के किस अनुच्छेद में धन विधेयक की परिभाषा दी गई है— अनुच्छेद-110
● संविधान के किस अनुच्छेद के अंतर्गत राष्ट्रपति अध्यादेश जारी करता है— अनुच्छेद-123
● संविधान के किस अनुच्छेद में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश पर महाभियोग चलाया जा सकता है—अनुच्छेद-124
● राष्ट्रपति किस अनुच्छेद के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श मांग सकता है— अनुच्छेद-233
● किस अनुच्छेद के अंतर्गत केंद्र के पास अवशिष्ट शक्तियाँ है— अनुच्छेद-248
● किस अनुच्छेद में अंतर्राष्ट्रीय समझौते लागू करने के लिए शक्ति प्रदान की गई है— अनुच्छेद-253
● किस अनुच्छेद के तहत राष्ट्रपति वित्त आयोग का गठन करता है— अनुच्छेद-280
● संपत्ति का अधिकार किस अनुच्छेद में है— अनुच्छेद-300 (क)
● संविधान के किस अनुच्छेद में संघ और राज्यों के लिए लोकसेवा आयोग का प्रावधान है—अनुच्छेद-315
● किस अनुच्छेद के अंतर्गत हिन्दी भाषा को राजकीय भाषा घोषित किया गया है— अनुच्छेद-343 (I)
● संविधान के किस अनुच्छेद के तहत अनुसूचित जनजातियों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग के गठन का प्रावधान है— अनुच्छेद-338 (A)
● संसद को संविधान संशोधन का अधिकार किस अनुच्छेद में है— अनुच्छेद-368
● संविधान के किस अनुच्छेद के अंतर्गत संविधान की प्रक्रिया का उल्लेख है— अनुच्छेद-356
● संविधान के किस अनुच्छेद में ‘मंत्रिमंडल’ शब्द का प्रयोग संविधान में एक बार हुआ है—अनुच्छेद-352
● जम्मू-कश्मीर को किस अनुच्छेद के अंतर्गत विशेष दर्जा प्राप्त है— अनुच्छेद-370
● अनुच्छेद-356 का संबंध किससे है— राष्ट्रपति शासन से
● भारतीय संविधान में समानता का अधिकार पाँच अनुच्छेदों द्वारा प्रदान किया गया है, वे कौन-से हैं—अनुच्छेद-14-18● संविधान के किस अनुच्छेद में मूल कर्तव्यों का उल्लेख है— अनुच्छेद-51 (क)
● ‘भारत के नागरिक का कर्तव्य होगा प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण एवं सुधार’ यह कथन किस अनुच्छेद में है— अनुच्छेद-(A)
● संविधान के किस अनुच्छेद के अंतर्गत राज्य सरकार को ग्राम पंचायत के संगठन का निर्देश दिया गया है— अनुच्छेद-40
● वर्तमान में संविधान में कितनी अनुसूचियाँ हैं— 12
● संविधान की द्वितीय अनुसूची का संबंध किस से है— महत्वपूर्ण पद अधिकारियों के वेतन-भत्तों से
● कौन-सी अनुसूची में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है— आठवीं अनुसूची
● दल-बदल के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की अयोग्यता संबंधी विवरण किस अनुसूची में है— 10वीं अनुसूची
● संविधान की छठी अनुसूची किस राज्य में लागू नहीं होता है— मणिपुर
● किस राज्य के आरक्षण विधेयक को 9वीं अनुसूची में सम्मिलिति किया गया है— तमिलनाडु
● भारतीय संविधान की कौन-सी अनुसूची राज्य में नामों की सूची तथा राज्य क्षेत्रों का ब्यौरा देती है—पहली अनुसूची
● भारतीय संविधान में 9वीं अनुसूची परिवर्तित हुई— प्रथम संशोधन द्वारा
● किस अनुच्छेद के अंतर्गत उपराष्ट्रपति पद की व्यवस्था है— अनुच्छेद-63
● वित्तीय आपात की घोषणा किस अनुच्छेद के अंतर्गत होती है— अनुच्छेद-360
● राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग का गठन किस अनुच्छेद के अंतर्गत किया जाता है— अनुच्छेद-340
● किस अनुसूची में केंद्र व राज्यों के बीच शक्तियों के बंटवारे का वर्णन है— सातवीं अनुसूची में
● समवर्ती सूची किस राज्य में संबंधित नहीं है— जम्मू-कश्मीर से
● संविधान लागू होने के समय समवर्ती सूची में कितने विषय थे— 47 विषय
● वर्तमान में राज्य सूची में कितने विषय हैं— 66 विषय
● वर्तमान में संघ सूची में कितने विषय हैं— 97 विषय
● किस अनुसूची में असम, मेघालय, त्रिपुरा व मिजोरम राज्यों के जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में प्रावधान है— छठीं अनुसूची में
● भारतीय संविधान सभा की प्रथम बैठक कब हुई— 9 दिसंबर, 1946 ई.
● संविधान सभा का स्थाई अध्यक्ष कौन था— डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
● संविधान सभा का अस्थाई अध्यक्ष कौन था— डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा
● संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष कौन थे— डॉ. भीमराव अंबेडकर
● संविधान सभा का औपचारिक रूप से प्रतिपादन किसने किया— एम. एन. राय
● भारत में संविधान सभा गठित करने का आधार क्या था— कैबिनेट मिशन योजना (1946 ई.)
● सर्वप्रथम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा संविधान सभा के गठन की मांग कब और कहाँ रखी गई— 1936 ई., फैजपुर
● कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार संविधान सभा में कितने सदस्य होने थे— 389
● संविधान के पुनर्गठन के फलस्वरूप 1947 तक संविधान सभा में सदस्यों की संख्या कितनी रह गई—299
● संविधान सभा में देशी रियासतों के कितने प्रतिनिधि थे— 70
● संविधान के गठन की मांग सर्वप्रथम 1895 में किस व्यक्ति ने की— बाल गंगाधर तिलक
● संविधान सभा में किस देशी रियासत के प्रतिनिधि ने भाग नहीं लिया— हैदराबाद
● बी. आर. अंबेडकर कहाँ से संविधान सभा में निर्वाचित हुए— बंगाल से
● संविधान सभा का संवैधानिक सलाहकार किसे नियुक्त किया गया था— बी. एन. राव
● संविधान सभा की प्रारूप समिति का गठन कब हुआ— 29 अगस्त, 1947 ई.
● संविधान की प्रारूप समिति के समक्ष प्रस्तावना का प्रस्ताव किसने रखा— जवाहर लाल नेहरू
● भारत में संविधान कब लगा हुआ— 26 जनवरी, 1950 ई.
● संविधान सभा की संघीय शक्ति समिति के अध्यक्ष कौन थे— जवाहर लाल नेहरू
● संविधान सभा की रचना हेतु संविधान का विचार सर्वप्रथम किसने प्रस्तुत किया— स्वराज पार्टी ने (1924 ई.)
● संविधान को बनाने में कितना समय लगा— 2 वर्ष 11 माह 18 दिन
● संविधान में कितने अनुच्छेद हैं— 444
● संविधान में कितने अध्याय हैं— 22
● भारतीय संविधान में कितनी अनुसूचियाँ हैं— 12
● संविधान सभा के सभी निर्णय किस आधार पर लिये गए— सहमति और समायोजन के आधार पर
● संविधान सभा का पहला अधिवेशन कहाँ हुआ— दिल्ली में
● संविधान सभा का चुनाव किस आधार पर हुआ— वर्गीय मताधिकार पर


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भारतीय संविधान के संशोधन
● पहला संशोधन (1951) —इस संशोधन द्वारा नौवीं अनुसूची को शामिल किया गया।
● दूसरा संशोधन (1952) —संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व को निर्धारित किया गया।
● सातवां संशोधन (1956) —इस संशोधन द्वारा राज्यों का अ, ब, स और द वर्गों में विभाजन समाप्त कर उन्हें 14 राज्यों और 6 केंद्रशासित क्षेत्रों में विभक्त कर दिया गया।
● दसवां संशोधन (1961) —दादरा और नगर हवेली को भारतीय संघ में शामिल कर उन्हें संघीय क्षेत्र की स्थिति प्रदान की गई।
● 12वां संशोधन (1962) —गोवा, दमन और दीव का भारतीय संघ में एकीकरण किया गया।
● 13वां संशोधन (1962) —संविधान में एक नया अनुच्छेद 371 (अ) जोड़ा गया, जिसमें नागालैंड के प्रशासन के लिए कुछ विशेष प्रावधान किए गए। 1दिसंबर, 1963 को नागालैंड को एक राज्य की स्थिति प्रदान कर दी गई।
● 14वां संशोधन (1963) —पांडिचेरी को संघ राज्य क्षेत्र के रूप में प्रथम अनुसूची में जोड़ा गया तथा इन संघ राज्य क्षेत्रों (हिमाचल प्रदेश, गोवा, दमन और दीव, पांडिचेरी और मणिपुर) में विधानसभाओं की स्थापना की व्यवस्था की गई।
● 21वां संशोधन (1967) —आठवीं अनुसूची में ‘सिंधी’ भाषा को जोड़ा गया।
● 22वां संशोधन (1968) —संसद को मेघालय को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित करने तथा उसके लिए विधानमंडल और मंत्रिपरिषद का उपबंध करने की शक्ति प्रदान की गई।
● 24वां संशोधन (1971) —संसद को मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन का अधिकार दिया गया।
● 27वां संशोधन (1971) —उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र के पाँच राज्यों तत्कालीन असम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर व त्रिपुरा तथा दो संघीय क्षेत्रों मिजोरम और अरुणालच प्रदेश का गठन किया गया तथा इनमें समन्वय और सहयोग के लिए एक ‘पूर्वोत्तर सीमांत परिषद्’ की स्थापना की गई।
● 31वां संशोधन (1974) —लोकसभा की अधिकतम सदंस्य संख्या 547 निश्चित की गई। इनमें से 545 निर्वाचित व 2 राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत होंगे।
● 36वां संशोधन (1975) —सिक्किम को भारतीय संघ में संघ के 22वें राज्य के रूप में प्रवेश प्रदान किया गया।
● 37वां संशोधन (1975) —अरुणाचल प्रदेश में व्यवस्थापिका तथा मंत्रिपरिषद् की स्थापना की गई।
● 42वां संशोधन (1976) —इसे ‘लघु संविधान’ (Mini Constitution) की संज्ञा प्रदान की गई है।
—इसके द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’, ‘समाजवादी’ और ‘अखंडता’ शब्द जोड़े गए।
—इसके द्वारा अधिकारों के साथ-साथ कत्र्तव्यों की व्यवस्था करते हुए नागरिकों के 10 मूल कर्त्तव्य निश्चित किए गए।
—लोकसभा तथा विधानसभाओं के कार्यकाल में एक वर्ष की वृद्धि की गई।
—नीति-निर्देशक तत्वों में कुछ नवीन तत्व जोड़े गए।
—इसके द्वारा शिक्षा, नाप-तौल, वन और जंगली जानवर तथा पक्षियों की रक्षा, ये विषय राज्य सूची से निकालकर समवर्ती सूची में रख दिए गए।
—यह व्यवस्था की गई कि अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपातकाल संपूर्ण देश में लागू किया जा सकता है या देश के किसी एक या कुछ भागों के लिए।
—संसद द्वारा किए गए संविधान संशोधन को न्यायालय में चुनौती देने से वर्जित कर दिया गया।
● 44वां संशोधन (1978) —संपत्ति के मूलाधिकार को समाप्त करके इसे विधिक अधिकार बना दिया गया।
—लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं की अवधि पुनः 5 वर्ष कर दी गई।
—राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष्ज्ञ के चुनाव विवादों की सुनवाई का अधिकार पुनः सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालय को ही दे दिया गया।
— मंत्रिमंडल द्वारा राष्ट्रपति को जो भी परामार्श दिया जाएगा, राष्ट्रपति मंत्रिमंडल को उस पर दोबारा विचार करने लिए कह सकेंगे लेकिन पुनर्विचार के बाद मंत्रिमंडल राष्ट्रपति को जो भी परामर्श देगा, राष्ट्रपति उस परामर्श को अनिवार्यतः स्वीकार करेंगे।
—‘व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार’ को शासन के द्वारा आपातकाल में भी स्थगित या सीमित नहीं किया जा सकता, आदि।
● 52वां संशोधन (1985) —इस संशेधन द्वारा संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ी गई। इसके द्वारा राजनीतिक दल-बदल पर कानूनी रोक लगाने की चेष्टा की गई है।
● 55वां संशोधन (1986) —अरुणाचल प्रदेश को भारतीय संघ के अन्तर्गत राज्य की दर्जा प्रदान किया गया।
● 56वां संशोधन (1987) —इसमें गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा देने तथा ‘दमन व दीव’ को नया संघीय क्षेत्र बनाने की व्यवस्था है।
● 61वां संशोधन (1989) —मताधिकार के लिए न्यूनतम आवश्यक आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
● 65वां संशोधन (1990) —‘अनुसूचित जाति तथा जनजाति आयोग’ के गठन की व्यवस्था की गई।
● 69वां संशोधन (1991) —दिल्ली का नाम ‘राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र दिल्ली’ किया गया तथा इसके लिए 70 सदस्यीय विधानसभा तथा 7 सदस्यीय मंत्रिमंडल के गठन का प्रावधान किया गया।
● 70वां संशोधन (1992) —दिल्ली तथा पांडिचेरी संघ राज्य क्षेत्रों की विधानसभाओं के सदस्यों को राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में शामिल करने का प्रावधान किया गया।
● 71वां संशोधन (1992) —तीन और भाषाओं कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया गया।
● 73वां संशोधन (1992) —संविधान में एक नया भाग 9 तथा एक नई अनुसूची ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गई और पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
● 74वां संशोधन (1993) —संविधान में एक नया भाग 9क और एक नई अनुसूची 12वीं अनुसूची जोड़कर शहरी क्षेत्र की स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
● 91वां संशोधन (2003) —इसमें दल-बदल विरोधी कानून में संशोधन किया गया।
● 92वां संशोधन (2003) —इसमें आठवीं अनुसूची में चार और भाषाओं-मैथिली, डोगरी, बोडो और संथाली को जोड़ा गया।
● 93वां संशोधन (2005) —इसमें एससी/एसटी व ओबीसी बच्चों के लिए गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित रखने का प्रावधान किया गया।
● 97वां संशोधन (2011) —इसमें संविधान के भाग 9 में भाग 9ख जोड़ा गया और हर नागरिक को कोऑपरेटिव सोसाइटी के गठन का अधिकार दिया गया।







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JANIYE BHARTIYA SAMVIDHAN KO Specialty in Indian Constitution

JANIYE BHARTIYA SAMVIDHAN KO
Specialty in Indian Constitution



● भारत का संविधान कैसा है— लिखित एंव विश्व का सबसे व्यापक संविधान
● भारतीय संविधन का स्वरूप होता है— संरचना में संघात्मक
● भारत में किस प्रकार का शासन व्यवस्था अपनाई गई है— ब्रिटिश संसदात्मक प्रणाली
● भारतीय संविधान का अभिभावक कौन है— सर्वोच्च न्यायालय
● भारत के संविधान में संघीय शब्द की जगह किन शब्दों को स्थान दिया गया है— राज्यों का संघ
● भारतीय संविधान में कितनी सूचियाँ हैं— 12
● भारतीय संविधान अपना अधिकार किससे प्राप्त करता है— भारतीय जनता से
● भारत में वैद्य प्रभुसत्ता किस में निहित है— संविधान में
● भारतीय संविधान की संरचना किस प्रकार की है— कुछ एकात्मक, कुछ कठोर
लिखित संविधान की अवधारणा ने कहाँ जन्म लिया— फ्रांस 
● अध्यक्षात्मक शासन का उदय सर्वप्रथम कहाँ हुआ— संयुक्त राज्य अमेरिका
भारतीय संविधान में नागरिकों को कितने मूल अधिकार प्राप्त है— 6 
● भारतीय संघीय व्यवस्था की प्रमुख विशेषता क्या है— संविधान की सर्वोच्चता
● भारतीय संघवाद व्यवस्था की प्रमुख विशेषता क्या है— संविधान की सर्वोच्चता
● भारतीय संघवाद को किसने सहकारी संघवाद कहा— जी. ऑस्टिन ने
● भारत में प्रजातंत्र किस तथ्य पर आधरित है— जनता को सरकार चनने व बदलने का अधिकार है

INDIAN CONSTITUTION

● भारतीय संविधान संसदीय प्रणाली किस देश के संविधान से ली गई है— इंग्लैंड
● भारतीय संविधान का कौन-सा लक्षण आयरिश संविधान से अनुप्रेरित है— नीति-निर्देशक तत्व
● भारतीय संविधान का सबसे बड़ा एकाकी स्त्रोत कौन-सा है— गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935
● भारतीय संविधान की संघीय व्यवस्था किस देश की संघीय व्यवस्था से समानता रखती है— कनाडा
● संविधान में समवर्ती सूची की प्रेरणा कहाँ से ली गई है— ऑस्ट्रेलिया
● भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों को किस देश से लिया गया है— रुस के संविधान से
● राज्य में कलेक्टर का पद औपनिवेशिक शासन ने किस देश से उधार लिया था— इंग्लैंड से
● ‘कानून के समक्ष समान संरक्षण’ वाक्य कहाँ से लिया गया है— संयुक्त राज्य अमेरिका से
● सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था भारतीय संविधान ने किस देश के संविधान से ली है— संयुक्त राज्य अमेरिका
● भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया किस देश के संविधान से प्रभावित है— दक्षिण अफ्रीका
● ‘विधि के समक्ष समता’ कहाँ से ली गई है— इंग्लैंड से
● वह संवैधानिक दस्तावेज कौन-सा है जिसका भारतीय संविधान तैयार करने में गहरा प्रभाव पड़ा—भारत सरकार अधिनिमय 1935
● भारत के राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ किस देश से ली गई हैं— जर्मनी के वीमार संविधान से
● भारत के सविधान में मूल अधिकार किस देश के संविधान से प्रेरित है— संयुक्त के वीमर संविधान से
● संविधान में ‘कानून द्वारा स्थापित’ शब्दावली किस देश के संविधान से ली गई है— संयुक्त राज्य अमेरिका
● प्रस्तावना की भाषा किस देश से ली गई है— ऑस्ट्रेलिया



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BHARTIYA SAMVIDHAN / भारतीय संविधान


BHARTIYA SAMVIDHAN / भारतीय संविधान



● भारतीय संविधान संसदीय प्रणाली किस देश के संविधान से ली गई है— इंग्लैंड
● भारतीय संविधान का कौन-सा लक्षण आयरिश संविधान से अनुप्रेरित है— नीति-निर्देशक तत्व
● भारतीय संविधान का सबसे बड़ा एकाकी स्त्रोत कौन-सा है— गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935
● भारतीय संविधान की संघीय व्यवस्था किस देश की संघीय व्यवस्था से समानता रखती है— कनाडा
● संविधान में समवर्ती सूची की प्रेरणा कहाँ से ली गई है— ऑस्ट्रेलिया
● भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों को किस देश से लिया गया है— रुस के संविधान से
● राज्य में कलेक्टर का पद औपनिवेशिक शासन ने किस देश से उधार लिया था— इंग्लैंड से
● ‘कानून के समक्ष समान संरक्षण’ वाक्य कहाँ से लिया गया है— संयुक्त राज्य अमेरिका से
● सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था भारतीय संविधान ने किस देश के संविधान से ली है— संयुक्त राज्य अमेरिका
● भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया किस देश के संविधान से प्रभावित है— दक्षिण अफ्रीका
● ‘विधि के समक्ष समता’ कहाँ से ली गई है— इंग्लैंड से
● वह संवैधानिक दस्तावेज कौन-सा है जिसका भारतीय संविधान तैयार करने में गहरा प्रभाव पड़ा—भारत सरकार अधिनिमय 1935
● भारत के राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ किस देश से ली गई हैं— जर्मनी के वीमार संविधान से
● भारत के सविधान में मूल अधिकार किस देश के संविधान से प्रेरित है— संयुक्त के वीमर संविधान से
● संविधान में ‘कानून द्वारा स्थापित’ शब्दावली किस देश के संविधान से ली गई है— संयुक्त राज्य अमेरिका
● प्रस्तावना की भाषा किस देश से ली गई है— ऑस्ट्रेलिया


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