Thursday, February 18, 2016

महत्वपूर्ण संगम शासक Significant Sangam Ruler

महत्वपूर्ण संगम शासक Significant Sangam Ruler


चेर शासक

चेर (तमिल - சேரர்) प्राचीन भारत का एक राजवंश था। इसको यदा कदा केरलपुत्र नाम से भी जाना जाता है। इसका विस्तार आधुनिक कोयम्बटूर, सलेम तथा करूर जिले तथा पास के केरल के पर्वतीय क्षेत्रों के पास केन्द्रित था। चेरों का शासन काल संगम साहित्य युग के पूर्व आरंभ हुआ था। इसी काल के उनके पड़ोसी शासक थे - चोल तथा पांड्य। इनके काल में तमिल भाषा का बहुत उत्थान हुआ था

संगम साहित्य से चेर शासकों पर विशेष प्रकाश पड़ता है। प्राचीन चेर राज्य में मूल रूप से उतरी त्रावणकोर, कोचीन तथा दक्षिणी मालाबार सम्मिलित थे। प्राचीन चेर राज्य की दो राजधानियाँ थीं, वंजि और तोण्डी। वंजि की पहचान करूर से की गई है। टोलमी चेरों की राजधानी करौरा का उल्लेख करता है। प्रथम चेर शासक उदयन जेराल के बारे में कहा जाता है कि उसने कुरुक्षेत्र में भाग लेने वाले सभी योद्धाओं को भोजन दिया। अत: उसे महाभोज उदयन जेरल की उपाधि दी गई। उदयन जेरल का पुत्र नेदुजेरल आदन ने कई राजाओं को पराजित करके अधिराज की उपाधि ली। वह इमैवरैयन (जिसकी सीमा हिमालय तक हो) कहा जाता था। वह दावा करता है कि उसने सारे भारत की जीत लिया तथा हिमालय पर चेर राजवंश के चिह्न को अंकित किया। उसकी राजधानी का नाम मरन्दई था। आदन का पुत्र सेनगुटुवन था, परनर कवि द्वारा यश वर्णन किया गया है। उसने कन्नगी पूजा अथवा पत्नी पूजा आरंभ की। माना जाता है कि पत्नी पूजा की मूर्ति के लिए पत्थर गंगा नदी से धोकर लाया गया था। शिल्पादिगारम में कन्नगीपूजा का प्रमाण मिलता है। एक चेर शासक आदिग इमान उर्फ नदुमान अंजि है। वह विद्वानों का बड़ा संरक्षक था, उसे दक्षिण में गन्ने की खेती शुरू करने का श्रेय दिया जाता है। एक चेर शासक शेय था जिसे हाथी जैसे आँखों वाला कहा जाता था। अंतिम चेर शासक कुडक्को इलंजेराल इरमपोई थी। चेरो की राजधानी करूयूर अथवा वंजीपुर थी। चेरों का राजकीय चिह्न धनुष था।


चेर, केरल का प्राचीन नाम था। उसमें आधुनिक त्रावणकोर, कोचीन, मलाबार, कोयंबत्तूर और सलेम (दक्षिणी) जिलों के प्रदेश सम्मिलित थे1 द्रविड़ अथवा तमिल कहलानेवाले पांड्य, चोल और चेर नाम के तीन क्षेत्र दक्षिण भारत की सर्वप्रथम राजनीतिक शक्तियों के रूप में दिखाई देते हैं। अत्यंत प्रारंभिक चेर राजाओं को वानवार जाति का कहा गया है। अशोक ने अपने साम्राज्य के बाहर दक्षिण की ओर के जिन देशों में धर्मप्रचार के लिए अपने महामात्य भेजे थे, उनमें एक था केरलपुत्र अर्थात् चेर (देखिए शिलाभिलेख द्वितीय और त्रयोदश)। संगम युग (लगभग 100 ई. से 250 ई. तक) का सबसे पहला चेर शासक था उदियंजेराल (130 ई.) जिसे संगम साहित्य में बहुत बड़ा विजेता कहा गया है। उसे अथवा उसके वंश को महाभारत की घटनाओं से जोड़ा गया है। उसका पुत्र नेडुंजेराल आदन भी शक्तिशाली था। उसने कुछ यवन (रोमक) व्यापारियों को बलात् रोककर धन वसूल किया, अपने सात समकालिक राजाओं पर विजय प्राप्त की और अधिराज (इमयवरंबन) की उपाधि धारण की। उसका छोटा भाई कुट्टुवन भी बड़ा भारी विजेता था, जिसने अपनी विजयों द्वारा चेर राज्य की सीमा को पश्चिमी पयोधि से पूर्वी पयोधि तक फैला दिया। आदन के पुत्र शेंगुट्टुवन के अनेक विवरण सुप्रसिद्ध संगम कवि परणर की कविताओं में मिलते हैं। वह एक कुशल अश्वारोही था तथा उसके पास संभवत: एक जलबेड़ा भी था। इस वंश के कुडड्की इरंजेराल इरुंपोडई (190 ई.) ने चोलों और पांड्यों से युद्ध के कई दुर्गों को जीता तथा उनकी धन-संपत्ति भी लूटी किंतु उसके बाद के मांदरजेराल इरुंपोडई नामक एक राजा को (210 ई.) पांड्यों से मुँह की खानी पड़ी। इन चेर राजाओं की राजधानी वेंगि थी, जिसके आधुनिक स्थान की ठीक-ठीक पहचान कर सकना कठिन है। विद्वानों में इस विषय में इस विषय पर बड़ मतभेद है। आदन उदियंजेराल का वंश कौटिल्य अर्थशास्त्र में वर्णित कुलसंघ का एक उदाहरण माना जाता है। कुलसंघ में एक राजा मात्र का नहीं अपितु राजपरिवार के सभी सदस्यों का राज्य पर शासन होता है।

तीसरी शती के मध्य से आगे लगभग 300 वर्षों का चेर इतिहास अज्ञात है। पेरुमल उपाधिधारी जिन राजाओं ने वहाँ शासन किया, वे भी चेर के निवासी नहीं, अपितु बाहरी थे। सातवीं आठवीं शती के प्रथम चरण में पांड्यों ने चेर के कोंगु प्रदेश पर अधिकार कर लिया। अन्य चेर प्रदेशों पर भी उनके तथा अन्य समकालिक शक्तियों के आक्रमण होते रहे। चेर राजाओं ने पल्लवों से मित्रता कर ली और इस प्रकार अपने को पांड्यों से बचाने की कोशिश की। आठवीं नवीं शती का चेर राजा चेरमान् पेरुमाल अत्यंत धर्मसहिष्णु और कदाचित् सर्वधर्मोपासक था। अनेक विद्वानों के मत में उसके शासनकाल के अंत के साथ कोल्लम अथवा मलयालम् संवत् का प्रारंभ हुआ (824-24 ई.)। उसके समय में अरबी मुसलमानों ने मलाबार के तटों पर अपनी बस्तियाँ बसा लीं और वहाँ की स्त्रियों से विवाह भी किया, जिनसे मोपला लोगों की उत्पत्ति हुई। चेरमान् पेरुमाल स्वयं भी लेखक और कवि था। उसके समकालिक लेखकों में प्रसिद्ध थे शंकराचार्य, जो भारतीय धर्म और दर्शन के इतिहास में सर्वदा अमर रहेंगे। पेरुमल ने अपने मरने के पूर्व संभवत: अपना राज्य अपने सभी संबंधियों में बाँट दिया था। नवीं शतीं के अंत में चेर शासक स्थाणुरवि ने चोलराज आदित्य के पुत्र परांतक से अपनी पुत्री का विवाह कर चोलों से मित्रता कर ली। स्थाणुवि का पुत्र था विजयरागदेव। उसके वंशजों में भास्कर रविवर्मा (1047-1106) प्रसिद्ध हुआ। किंतु राजरा प्रथम और उसके उत्तराधिकारी चोलों ने चेर का अधिकांश भाग जीत लिया। मदुरा के पांड्यों की भी उसपर दृष्टि थी। आगे रविवर्मा कुलशेखर नामक एक चेर राजा ने थोड़े समय के लिए अपने वंश की खोई हुई कुछ शक्ति पुन: अर्जित कर ली, पांड्य-पल्लव क्षेत्रों को रौंदा तथा अपने को सम्राट कहा। वह एक कुशल शासक और विद्वानों का अश्रयदाता था1 कोल्लम् (क्विलॉन) उसकी राजधानी थी।

मध्ययुग और उसके बाद का चेर इतिहास बहुत स्पष्ट नहीं है। कालांतर में वह पुर्तगाली, अन्य योरोपीय आक्रमणकारियों, ईसाई धर्म-प्रचारकों और भारतीय रजवाड़ों की आपसी प्रतिस्पर्धा का विषय बन गया। अंग्रेजी युग में ट्रावणकोर और कोचीन जैसे देशी राज्य बचे तो रहे किंतु उनके पास अपनी कोई स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति नहीं थी।

विद्या और साहित्य की सेवा में चेरदेश के नंबूदरी ब्राह्मण परंपरया अग्रणी थे। उनमें यह प्रथा थी कि केवल जेठा भाई विवाह कर घरबार की चिंता करता था। शेष सभी छोटे भाई पारिवारिक चिंताओं से मुक्त होकर साधारण जनता में विद्या का प्रचार और स्वयं विद्याध्ययन में लगे रहते थे। आर्यवंशी कुरुनंदडक्कन (नवीं शती) नामक वहाँ के शासक ने वैदिक विद्याओं के प्रचार के लिए एक विद्यालय और छात्रावास की स्थापना हेतु एक निधि स्थापित की थी। वह विद्यालय दक्षिणी त्रावणकोर में पार्थिवशेखरपुरम् के एक विष्णुमंदिर में लगता था। वास्तव में उस क्षेत्र के सभी मठ और सत्र अपने अपने ढंग से गुरुकुलों का काम करते थे


चेर राजवंश के शासकों ने दो अलग अलग समयावाधियों में शासन किया था. पहले चेर वंश ने संगम युग में शासन किया था जबकि दूसरे चेर वंश ने 9 वीं शताब्दी ईस्वी से लेकर आगे तक के काल में भी शासन कार्य किया था. हमें  चेर वंश के बारे में जानकारी संगम साहित्य से मिलता है. चेर शासकों   के द्वारा शासित क्षेत्रों में  कोचीन, उत्तर त्रावणकोर और दक्षिणी मालाबार शामिल थे. चेर वंश की राजधानी बाद में चेर  की उनकी राजधानी किज़न्थुर-कन्डल्लुर  और करूर वांची थी. परवर्ती चेरों की राजधानी  कुलशेखरपुरम और मध्य्पुरम थी. चेरों का प्रतीक चिन्ह धनुष और तीर था. उनके द्वारा जारी सिक्को पर धनुष डिवाइस अंकित था.
उदियांजेरल
यह चेर राजवंश के पहले राजा के रूप में दर्ज किया गया है. चोलों के साथ अपनी पराजय के बाद इसने  आत्महत्या कर ली थी. इसने महाभारत युद्ध में भाग लेने वाले वीरो को भोजन करवाया था ऐसी जानकारी स्रोतों से मिलती है.
नेदुन्जेरल आदन 
इसने मरैंदे को अपने राजधानी के रूप में चुना था. इसके बारे में कहा जाता है की इसने सात अभिषिक्त राजाओं को पराजित करने के बाद अधिराज की उपाधि धारण की थी. इसने इयाम्बरंबन की भी उपाधि धारण की थी जिसका अर्थ होता है हिमालय तक की सीमा वाला.
सेनगुट्टवन (धर्म परायण कट्तुवन)
सेनगुट्टवन इस राजवंश का सबसे शानदार शासक था. इसे लाल चेर के नाम से भी जाना जाता था. वह प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य शिल्प्पदिकाराम  का नायक था. दक्षिण भारत से चीन के लिए दूतावास भेजने वाला वह पहला चेर राजा था. करूर उसकी राजधानी थी. उसकी नौसेना दुनिया में सबसे अच्छी एवं मजबूत थी. इसे पत्तिनी पूजा का संस्थापक माना जाता है.
आदिग ईमान
इस शासक को दक्षिण में गन्ने की खेती प्रारंभ करने का श्रेय दिया जाता है.
दूसरा चेर राजवंश
कुलशेखर अलवर, दूसरे चेर राजवंश का संस्थापक था. उसकी राजधानी महोदयपुरम  थी. दूसरे  चेर राजवंश का अंतिम चेर राजा राम वर्मा कुलशेखर था. उसने 1090 से 1102 ईस्वी तक शासन किया था. उसके मृत्यु के बाद वंश समाप्त हो गया.



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चोल वंश
इसकी प्रथम जानकारी कात्यायन की वर्तिका से मिलती है। महाभारत, संगम साहित्य, पेरिप्लस और टॉलमी के विवरण से भी जानकारी प्राप्त होती है। साक्ष्यों के अनुसार चोलों की पहली राजधानी उत्तरी मलनुर थी। कालांतर में वह उरैयूर और तंजावूर हो गयी। चोलों का राजकीय चिह्न बाघ था। प्रथम चोल शासक इलजेतचेन्नी था। इसी ने उरैयूर राजधानी बनायी। चोल राजाओं में करिकाल प्रमुख है। उसके बारे में कहा जाता है कि जब वह खुले समुद्र में जहाज चलाता था तो हवा भी उसके अनुसार बहने को बाध्य होती थी। करिकाल का अर्थ है जली हुए टांग वाला व्यक्ति। करिकाल को 7 स्वरों का ज्ञाता भी कहा जाता था। कावेरी नदी के मुहाने पर उसने पुहार की स्थापना की। उसने पटिनप्पालै के लेखक को 16 लाख मुद्राएँ भेंट कीं। दूसरी सदी ई.पू. के एक शासक एलारा की भी चर्चा मिली है। इसने श्रीलंका पर 50 वर्षों तक शासन किया।

चोल (तमिल - சோழர்) प्राचीन भारत का एक राजवंश था। चोल शब्द की व्युत्पत्ति विभिन्न प्रकार से की जाती रही है। कर्नल जेरिनो ने चोल शब्द को संस्कृत "काल" एवं "कोल" से संबद्ध करते हुए इसे दक्षिण भारत के कृष्णवर्ण आर्य समुदाय का सूचक माना है। चोल शब्द को संस्कृत "चोर" तथा तमिल "चोलम्" से भी संबद्ध किया गया है किंतु इनमें से कोई मत ठीक नहीं है। आरंभिक काल से ही चोल शब्द का प्रयोग इसी नाम के राजवंश द्वारा शासित प्रजा और भूभाग के लिए व्यवहृत होता रहा है। संगमयुगीन मणिमेक्लै में चोलों को सूर्यवंशी कहा है। चोलों के अनेक प्रचलित नामों में शेंबियन् भी है। शेंबियन् के आधार पर उन्हें शिबि से उद्भूत सिद्ध करते हैं। 12वीं सदी के अनेक स्थानीय राजवंश अपने को करिकाल से उद्भत कश्यप गोत्रीय बताते हैं।

चोलों के उल्लेख अत्यंत प्राचीन काल से ही प्राप्त होने लगते हैं। कात्यायन ने चोडों का उल्लेख किया है। अशोक के अभिलेखों में भी इसका उल्लेख उपलब्ध है। किंतु इन्होंने संगमयुग में ही दक्षिण भारतीय इतिहास को संभवत: प्रथम बार प्रभावित किया। संगमकाल के अनेक महत्वपूर्ण चोल सम्राटों में करिकाल अत्यधिक प्रसिद्ध हुए संगमयुग के पश्चात् का चोल इतिहास अज्ञात है। फिर भी चोल-वंश-परंपरा एकदम समाप्त नहीं हुई थी क्योंकि रेनंडु (जिला कुडाया) प्रदेश में चोल पल्लवों, चालुक्यों तथा राष्ट्रकूटों के अधीन शासन करते रहे।


चोल राजवंश  
चोलों के विषय में प्रथम जानकारी पाणिनी कृत अष्टाध्यायी से मिलती है।
चोल वंश के विषय में जानकारी के अन्य स्रोत हैं - कात्यायन कृत 'वार्तिक', 'महाभारत', 'संगम साहित्य', 'पेरिप्लस ऑफ़ दी इरीथ्रियन सी' एवं टॉलमी का उल्लेख आदि।
चोल राज्य आधुनिक कावेरी नदी घाटी, कोरोमण्डल, त्रिचनापली एवं तंजौर तक विस्तृत था।
यह क्षेत्र उसके राजा की शक्ति के अनुसार घटता-बढ़ता रहता था।
इस राज्य की कोई एक स्थाई राजधानी नहीं थी।
साक्ष्यों के आधार पर माना जाता है कि, इनकी पहली राजधानी 'उत्तरी मनलूर' थी।
कालान्तर में 'उरैयुर' तथा 'तंजावुर' चोलों की राजधानी बनी।
चोलों का शासकीय चिह्न बाघ था।
चोल राज्य 'किल्लि', 'बलावन', 'सोग्बिदास' तथा 'नेनई' जैसे नामों से भी प्रसिद्व है।
भिन्न-भिन्न समयों में 'उरगपुर' (वर्तमान 'उरैयूर', 'त्रिचनापली' के पास) 'तंजोर' और 'गंगकौण्ड', 'चोलपुरम' (पुहार) को राजधानी बनाकर इस पर विविध राजाओं ने शासन किया।
चोलमण्डल का प्राचीन इतिहास स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है।
पल्लव वंश के राजा उस पर बहुधा आक्रमण करते रहते थे, और उसे अपने राज्य विस्तार का उपयुक्त क्षेत्र मानते थे।
वातापी के चालुक्य राजा भी दक्षिण दिशा में विजय यात्रा करते हुए इसे आक्रान्त करते रहे।
यही कारण है कि, नवीं सदी के मध्य भाग तक चोलमण्डल के इतिहास का विशेष महत्त्व नहीं है, और वहाँ कोई ऐसा प्रतापी राजा नहीं हुआ, जो कि अपने राज्य के उत्कर्ष में विशेष रूप से समर्थ हुआ हो।
चोल वंश के शासक
उरवप्पहर्रे इलन जेत चेन्नी
करिकाल
विजयालय (850 - 875 ई.)
आदित्य (चोल वंश) (875 - 907 ई.)
परान्तक प्रथम (908 - 949 ई.)
परान्तक द्वितीय (956 - 983 ई.)
राजराज प्रथम (985 - 1014 ई.)
राजेन्द्र प्रथम (1014 - 1044 ई.)
राजाधिराज (1044 - 1052 ई.)
राजेन्द्र द्वितीय (1052 - 1064 ई.)
वीर राजेन्द्र (1064 - 1070 ई.)
अधिराजेन्द्र (1070 ई.)
कुलोत्तुंग प्रथम (1070 - 1120 ई.)
विक्रम चोल (1120 - 1133 ई.)
कुलोत्तुंग द्वितीय (1133 - 1150 ई.)

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पांड्य

पाण्ड्य राजवंश (तमिल: பாண்டியர்) प्राचीन भारत का एक राजवंश था। इसने भारत में 560 से 1300 ई तक राज किया

मेगस्थनीज के विवरण, अशोक के अभिलेख, महाभारत, रामायण आदि में इसकी चर्चा हैं। मेगस्थनीज ने पंडैया द्वारा शासित पांडय राज्य का विलक्षण वर्णन प्रस्तुत किया है। पांडया हेराक्लीज की पुत्री थी। उसे उसने उत्तर भारत का वह भाग दिया था जो दक्षिण की ओर है और समुद्र तक जिसकी सीमा है। पांड्य की राजधानी मदुरई थी और उनका राज-चिह्न मछली था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मदुरा कीमती मोतियों, उच्च कोटि के वस्त्र एवं विकसित वाणिज्य और व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। पांड्यों की प्रारम्भिक राजधानी कोरकई करुयुर थी। प्रमुख पांड्य शासक नेडियोन ने सागर पूजा की प्रथा शुरू की। पलशायमुड्डोकुडमि, वेलबिक्री दानपत्र के अनुसार, पांडय वंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक था। उसे अनेक यज्ञशाला बनाने का श्रेय दिया जाता हैं इसलिए उसका नाम पलशाय है। इस वंश का प्रसिद्ध शासक नेडूनजेलियन था। उसे तलैयालगानम का युद्ध जीतने का श्रेय दिया जाता है। उसने चेर शासक शेय को पराजित करके बंदीगृह में डाल दिया। इसी ने कन्नगी के पति कोवलन को दंडित किया था। फिर उसने पश्चाताप में आत्महत्या कर ली। संगम ग्रन्थ में नल्लिवकोडम को अन्तिम ज्ञात पांड्य शासक माना जाता है।





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